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मुखवस्त्रिका सिद्धि
अर्थ - वह साधु अथवा साध्वी उच्छ्वास अथवा निच्छ्वास लेते हुए, अथवा खांसी, छींक, जंभाई, उबासी, डकार तथा वायूत्सर्ग, इन क्रियाओं को करते हुए पहले ही मुख को तथा गुदा को हाथ से ढक कर बाद में उच्छ्वास ले, यावत् वायूत्सर्ग करे ।
यहाँ शास्त्रकार ने उच्छ्वासादि सात कारणों (प्रसंगों) में मुख व अधो-भाग को हाथ से ढकना फरमाया है। इससे भी यही प्रमाणित होता है कि उस समय यदि हाथ में मुखवस्त्रिका रखने का रिवाज होता तो सूत्रकार हाथ से यतना करने का क्यों कहते ? जब कि मुखवस्त्रिका रखने के प्रधान हेतु में वायुकायादि जीवों की रक्षा मुख्य है, तब ऐसे प्रसंगों के लिए हाथ से यतना करने का विधान कुछ और ही महत्त्व रखता है। इसका खास कारण यह है कि - उच्छ्वास, छींक, उबासी आदि प्रसंगों पर मुख की वायु प्रबल वेग वाली हो जाती है । वह मुखवस्त्रिका के मुँह पर होते हुए भी बिना किसी बाधा के वेग पूर्वक निकल जाती है, जिससे बहुत अयतना होती है, उक्त प्रसंगों पर सारा मुँह खुल जाता है। और इतने जोर से वायु निकलती है कि कई बार कमर में से धोती की किनार तक टूट जाती है। ऐसा प्रबल वायु का वेग ओष्ठ पर रही हुई मुखवस्त्रिका की क्या दरकार करे ? बस इसीलिए शास्त्रकार ने इन इन प्रसंगों पर विशेष यतना के लिए हाथ के उपयोग करने का विधान किया है, जिससे ठीक तरह यतना हो सके ।
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यदि इस विधान से मुखवस्त्रिका का मुँह पर होना नहीं मानेंगे तो आपको अधोभाग भी वस्त्र रहित मानना पड़ेगा, क्योंकि वहाँ भी
हाथ से यत्ना करने का कहा है । वस्त्र धारण करना तो मानना और
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