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मुखवस्त्रिका सिद्धि
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इससे नासिका बाँधते समय मुँह भी बाँधा जाता है (पर मुँह बाँधते समय नासिका नहीं बाँधी जाती)। और इसी से सर्व साधारण का यह व्यावहारिक नियम है कि - जहाँ कहीं दुर्गन्ध की ओर से निकलने का काम पड़े तो उस दुर्गन्ध से बचने के लिए नासिका व मुँह दोनों पर कपड़ा लगा लेते हैं। हाँ, अगर नासिका, मुँह पर नहीं होकर किसी अन्य जगह पेट, हाथ या पैर पर होती, और वैसी हालत में मुँह भी बाँधते तब तो यह बात भी विचारणीय होती। पर वैसा तो स्वाभाविक नहीं है। . इस से यह अच्छी तरह प्रमाणित हो गया कि - मृगावती रानी ने जो श्री गौतमस्वामी को मुख-वस्त्रिका से मुँह बाँधने का कहा, वह केवल दुर्गन्ध से बचने के लिए नासिका ही को, और साथ साथ अति निकट एवं प्रधान अंग होने से, तथा कीटाणुओं से रक्षा करने के लिए मुँह बाँधने का कहा, इसका मुख्य कारण ऊपर बताए हुए मुहावरे के व्यावहारिक शब्द ही से कहा है, परन्तु इससे यह नहीं माना जा सकता कि श्री गौतमस्वामी के मुँह पर मुख-वस्त्रिका नहीं थी। बँधी हुई तो अवश्य थी, क्योंकि वे जैन साधु के लिंग में थे, और जैन साधु के लिंग की सर्व प्रथम स्पष्ट एवं सरलता पूर्वक परिचय देने
* ज्ञानसुन्दरजी ने भी दुर्गन्ध से बचाव होने का कारण माना है और विशेष में यह भी माना है कि "मुँहपत्ति को तिखुनी कर नाक व मुँह को आच्छादित कर लिया" जैसे कि रानी मृगा ने अपना मुँह बाँधा था (पृष्ठ ३७३) इससे तो उल्टा यह सिद्ध होता है कि मुख-वस्त्रिका बँधी हुई तो थी, पर रानी की तरह (त्रिकोन कर नाक व मुँह दोनों को) बाँधी हुई नहीं थी। अतः ऐसा करने का रानी ने श्री गौतमस्वामी से निवेदन किया। इस से हाथ में रखना मान लेना अनुचित एवं श्री गौतमस्वामी जी को कुलिंग युक्त मानना है।
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