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मिथ्याभिमान महिमा
मिथ्याभिमान - महिमा
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वास्तव में अभिमान कोई वस्तु नहीं है, न कोई देव दानव है, न इन्द्र, महेन्द्र, या अहमिन्द्र है, यदि है तो केवल आत्मा का एक दुर्गुण ही, यह मिथ्याभिमान जिस व्यक्ति के हृदय में निवास करता है, वह अधमता (अधमगति) की ओर ही अग्रसर होता जाता है । कहा भी है कि - "माणेण अहमा गई" ऐसा दुर्गुण का भण्डार, सद्गुण का शत्रु, सत्य संहारक, न्याय नाशक और कपट का कोष, यह मिथ्याभिमान जब मानव हृदय में प्रवेश करता है, तब उसको अपवित्र कर देता है, जिससे सत्य एवं न्याय को वहां से बिदा होना पड़ता है। इस मान महिपाल की दुराग्रह से गाढ़ मैत्री है। ये दोनों अभिन्न मित्र सदा साथ ही रहते हैं। जब तक उक्त दुर्गुण मानव हृदय में रहता है, तब तक, क्या मजाल जो सत्य और न्याय आंख उठा कर भी उधर देखले । ऐसे मिथ्याभिमान ग्रस्त व्यक्ति को कोई सज्जन पुरुष अगर हित शिक्षा देता है, तो वह भी उसको अरुचिकर ही होती है, और फल स्वरूप शिक्षादाता को भी कभी कभी अपमानित होना पड़ता है । क्योंकि ऐसे प्राणियों को तो अपने समान वृत्ति वाले की निज स्वभाव के अनुकूल बातें ही प्रिय लगती हैं और वह उन्हीं को सुनने की इच्छा करता है।
ऐसे लोगों के लिये कुछ लिखकर समय एवं समाज के द्रव्य का व्यय करना लेखक अनुचित समझता है, परन्तु जो लोग सरल हृदय के हैं, जिन्हें सत्या - सत्य के विचार करने की इच्छा है, उनके लिए और मुख्यतः स्वसमाज रक्षणार्थ ही यह प्रयास किया जा रहा है।
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