Book Title: Mukhvastrika Siddhi
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 37
________________ सप्रमाण सिद्धि *** सम्वत् १६६१ पृष्ठ ८६७ में छपी है, और इसके छपवाने वाले भी मूर्तिपूजक मुनि विजय हर्षसूरिजी है। उसकी फोटू से ली हुई यथा तथ्य नकल दी जाती है - श्री २० ** मुकाम सुरत बन्दर मुनि श्री आलमचन्दजी योग्य लि० आचार्य महाराज श्री श्री श्री १००८ श्री मद्विजयानन्द सूरीश्वरजी (आत्मारामजी ) महाराज जी आदि साधु मण्डल ठाने ७ केतर्फ से वंदणाऽनुवंदना १००८ वार बाँचना चिट्ठी तुमारी आइ समंचार सर्व जाणे हैं यहाँ सर्व साधु सुखसाता में हैं तुमारी सुखसाता का समंचार लिखना मुहपत्ति विशे हमारा कहना इतनाहि है कि मुहपत्ति बंधनी अच्छी है और घणे दिनों से परम्परा चली आई है इनको लोपना यह अच्छा नहीं है हम बन्धनी अच्छी जाणते हैं परन्तु हम ढूंढीए लोक में से मुहपत्ति तोड़ के नीकले हैं इस वास्ते हम बन्ध नहीं सक्ते हैं और जो कदी बन्धनी इच्छीए तो यहां बड़ी निन्दा होती है और सत्य धर्म में आये हुए लोकों के मन में होलचली हो जावे इस वास्ते नहीं बन्ध सक्ते हैं सो जाणना अपरंच हमारी सलाह मानते हो तो तुमको मुहपत्ति बंधने में कुछ भी हानी नहीं है क्योंकि तुमारे गुरु बन्धते हैं और तुम नहीं बन्धो यह अच्छी बात नहीं है आगे जैसी तुमारी मरजी हमने तो हमारा अभिप्राय लिख दिया है सो जाणना - और हमको तो तुम बाँधोगे तो भी वैसे हो और नहीं बाँधो तो भी वैसे ही है पर तुमारे हित के वास्ते लिखा है आगे जैसी तुमारी मरजी - १९४७ कत्तक वदि० वार बुध दसखत - वल्लभविजय की वन्दना वाचनी दीवाली के रोज दस बजे चिट्ठी लिखी है। For Personal and Private Use Only Jain Educationa International www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104