________________
२२
सप्रमाण सिद्धि
**************************************
(२) तत्थय-जाहे चेव काल गतो ताहे चेव हत्थ पादा उज्जाधारिज्जन्ति। तुंडं चसे “मुंह पोतियाए वज्झई, जाणि संधाणाणि अंगुलि-अंतराणि तच्छइ इसिं फालिज्जाइ, पायगुडे सुहत्थंगुढेसु वज्झतीति। _अर्थात् - जिस समय साधु काल करे, उसी समय शीघ्र हाथ पैर सीधे पकड़ रक्खे, और उसका "मुँह मुँहपत्ति से बांधे" जितने अंगुली के बीच के सांधे (जोड़) हैं उनके 'चमड़े को चीरे," और पैर व हाथ के अंगूठे को बांधे।
. (आवश्यक बृहद् वृत्ति (हरिभद्रीय) प्रतिक्रमणाध्ययन परिष्टापनिकाधिकार)
इस प्रकार मुख-वस्त्रिका का मुंह पर बाँधना अनेक पुष्ट एवं प्रबल प्रमाणों से सिद्ध है, यहाँ तक कि मृतक साधु के भी मुखवस्त्रिका बाँधना प्रमाणित है, जो कि-सिवाय लिंग प्रदर्शन के वह अन्य किसी उपयोग में नहीं आती, तो फिर जीवित साधु अवश्य बांधे, इसमें तो शंका ही नहीं हो सकती।
यद्यपि मुख-वस्त्रिका के मुँह पर बाँधने के ये प्रमाण इतने प्रबल और अकाट्य हैं कि जिन्हें देखकर सुज्ञ जनों को किसी भी प्रकार की शंका नहीं रह सकती। तथापि हमारे कितने ही भाई इस विषय की शंकाएं उठाकर भद्र जनता को भ्रम में डालने का प्रयत्न करते हैं। और श्री ज्ञानसुन्दरजी आदि ने किया भी है। अतएव आगे उतरार्द्ध में हम उन शङ्काओं का भी पृथक् २ समाधान करेंगे। पाठक धैर्य एवं शान्ति से पढ़ें। ... इन दोनों प्रमाणों का मतलब केवल मुख-वस्त्रिका से है, अन्य बातों से नहीं।
-
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org