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मुंहपत्ति रखने के कारण
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बोलती वखत मोंढा आगल राखेला हाथ के वस्त्रना स्पर्श के चलनादिथी अनुभव सिद्ध छे, तो तेवी रीते भाषानी वखते नीकलतो वायु बाहर रहेला "सचित्त वाउकायनी विराधना करे तेमां शंकाने स्थान होइ शके नहीं" ए वात पण शास्त्र सिद्ध छे के शरीरमा रहेलो वायु बाहरना वायु ने शस्त्र रूप छे, शास्त्र ने मुख्यताए नहीं मानता शोधकपणानीज दृष्टिने मुख्यताए मानवावाला लोको पण शरीरथी नीकलता वायु ने झेरी हवा तरीके ज ओलखावे छे, जो की मुख आगल वस्त्र राखवाथी भाषानी साथे नीकलतो वायु शरीरमा पाछो प्रवेश करतो नथी, पण मुखमांथी नीकलता वायुना वेगने जरूर तोड़ी नाखे छे, अने ते वेग रहित थयेलो वायु बाहरना वायुने आघात करनार न थाय, के ओछो थाय, ते स्वभाव सिद्ध ज छे, अने तेथीज शास्त्रकारोए पण साधुओने फूंक देवानी मनाई करी.
निरवद्य भाषानी प्रतिज्ञा वाला छतां-जो मुंहपत्ति ने न माने तो मिथ्यात्वी बने -
“आ उपरथी समजाशे के मुंहपत्ति ने राख्या सिवाय बोलनारा भाषानुं निरवद्यपणुं राखनारा कहेवायज नहिं, तो पछी जेओ निरवद्य भाषाने माटे सूत्र सिद्ध वस्त्रनी जरुर छतां ते वस्त्रनीज जरुरीयात न माने तेओ पोताना आत्माने भाषा समितिथी चूकवे छे, एटलुंज नहिं पण सम्यक् श्रद्धान रूपी सम्यक्त्व थी पण चूकवे छे, अर्थात् उघाड़े मुखे बोलवा वालो भाषासमितिथी चूकेलो अने असंजममां पेठेलो गणाय।"
(५) पुनः सागरानन्द सूरिजी इसी पत्रिका के ह वें अङ्क पृष्ठ २८१ प्रथम कॉलम पंक्ति २० में लिखते हैं, कि - .
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