Book Title: Mukhvastrika Siddhi
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 24
________________ मुखवस्त्रिका सिद्धि ******************** ****************** ___ महानुभावो! अगर वास्तव में वल्लभविजयजी विजयी थे, इनकी जीत ही हुई थी, तो इन्हें उदास होने का क्या कारण था? कहीं विजेता भी उदास होता है? क्या कभी किसी भाई ने किसी विजयी को उदास होते देखा या सुना है? नहीं। वास्तव में तो जो हारता है वही उदास होता है, और उसी की प्रसन्नता पलायन कर जाती है। श्री वल्लभविजयजी के इस पत्र से अनायास ही यह सिद्ध हो जाता है कि - शास्त्रार्थ के समय अवश्य इनकी हार हुई थी, जिससे इन पर उदासी छा गई थी और अब डेढ़ वर्ष के बाद इस जाली फैसले के प्राप्त होते ही, वह पलायन की हुई प्रसन्नता पुनः प्राप्त हुई। . पुनः देखिए - जब शास्त्रार्थ मध्य में ही छोड़ा गया था तो उस समय फैसला देने की आवश्यकता क्या थी? यद्यपि मूर्तिपूजक लोग उस समय फैसला देना और स्थानकवासियों का जीतना स्वीकार नहीं करते हैं, तथापि इनकी यह हठधर्मी अब चल नहीं सकती, क्योंकिउस समय के इनके समाचार पत्र ही इस बात को स्वीकार कर रहे हैं। अधिक नहीं केवल एक ही प्रमाण देखिए - जैन धर्म प्रसारक सभा भावनगर (जो मूर्तिपूजक की खास संस्था है) से प्रकाशित “जैन धर्म प्रकाश" मासिक पुस्तक २१ फागण सम्वत् १९६२ अंक १२ में - "नाभा स्टेटे बाहर पाडेलो फैसलो" शीर्षक से लिखा है कि - "सं० १९६१ ना जेठ मासमां पंजाब ताबे नाभा स्टेटना राजा साहेबे” “जे काम चलाऊ फैसलो आप्यो हतो" ते बाबतनो आखरी फैसलो हालमां तेओ साहेबे मुनिराज श्री वल्लभविजयजी उपर लखी मोकल्यो छे." Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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