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भूमिका यह सर्व विदित है कि किसी भी कार्य में निमित्त उपादान आदि कई कारण होते हैं। तदनुसार धर्मरूप कार्य में सम्यक् ज्ञान सच्ची श्रद्धा के सिवाय कुछ आगमोक्त बाह्य कारण भी अनिवार्य है।
दुनियाँ जानती है कि - जैन धर्म दया प्रधान धर्म है, दया की आराधना के लिये जैनागमों में गणधरों ने धर्मोपकरणों की परिगणना की है। इन उपकरणों में कई खासकर श्रमणों के लिये हैं और कुछ श्रावकों के लिये भी उपयोगी हैं।
. इन आगमोक्त धर्मोपकरणों में "मुखवस्त्रिका" समस्त जैन जनता के लिये अत्यन्त आवश्यक एवं सर्वोपयोगी है। क्योंकि मुखवस्त्रिका के धारण करने से न केवल आगम आज्ञा की आराधना ही होती है, किन्तु पञ्च-भौतिक जीवों में वायुकायिक आदि जीवों की रक्षा भी अच्छी तरह होती है। शिष्ठता का पालन तथा उच्छिष्ट परिहार (यूँक उछलना) आदि कई अन्य दृष्ट फल भी मुखवस्त्रिका धारण करने से हैं। अतएव श्वेताम्बर जैन समाज के सभी प्राचीन आचार्यों ने साधु के उपकरणों में मुखवस्त्रिका की प्रधान उपयोगिता मान्य की है, यहाँ तक कि अचेलक जिनकल्पी मुनि जो कि वस्त्र तक नहीं रखते, उनके लिये भी मुखवस्त्रिका रखना अनिवार्य बतलाया गया है, और जिनकल्पी मुनि मुखवस्त्रिका रखते भी थे। इसी प्रकार जैन श्रावक वर्ग के लिये भी सामायिक आदि धर्म क्रिया में रजोहरण और मुखवस्त्रिका रखना अनिवार्य है। इन उपकरणों के होने से ही सामायिक पौषधादि क्रियाएँ पूर्ण शुद्धता पूर्वक होना कहा जाता है।
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