Book Title: Meri Jivan Prapanch Katha
Author(s): Jinvijay
Publisher: Sarvoday Sadhnashram Chittorgadh

Previous | Next

Page 12
________________ Tefer प्रस्ताविक उस परिवर्तन को भी आज ५५ वर्ष जितना समय व्यतीत हो गया। उस वेष में मैं जब तक रहा तब तक उस सम्प्रदाय एवं वेष के अनुरूप आचार धर्म का यथा योग्य पालन करता बहा । आहार-विहार आदि की जो परिपाटी उस सम्प्रदाय में सर्व मान्य रूप से प्रचलित थो, मैं भी उसका अनुसरण बराबर करता रहा । केश लोच भी नियमानुसार करता रहा । सदैव पादविहार करता रहा। वाहन का कभी कोई उपयोग नहीं किया मेरी जिज्ञासा बुद्धि को तृत्त करने के लिए उस सम्प्रदाय में बहुत कुछ साधन थे, इसलिए मेरा मानसिक उत्साह हमेशा बढ़ता ही गया । अनेक पुराने ग्रन्थ भण्डार मुझे देखने को मिले, जिनमें हजारों प्राचीन ग्रन्थों के अवलोकन का मुझे यथेष्ट अवसर मिला । इसलिए मेरी मूल विद्याभिरूचि का यथेष्ट परिपोष होता रहा । परन्तु उस बारह वर्ष के काल में पिछले ४-५ वर्षों में देश को राजकीय जागृति में, महात्मा गांधी जी के आगमन के साथ, जा नयो विचार धारा उत्पन्न हुई, उसने मेरे क्रांतिप्रिय मन को भी आन्दोलित करना शुरू कर दिया। मेरे मन में अब उस स्वर्ग लोक की प्राप्ति को वैसी भावना नहीं रही, जो उसके पूर्व वाले साधु जीवन में काम कर रही थी । मेरे दिल में देश की स्वतन्त्रता के भाव जागृत होने लगी और महात्मा गांधीजी के राष्ट्रीय आंदोलन ने उन भावों को उत्त ेजित करना शुरू किया । देश के कई क्रांतिकारी बन्धुत्रों को रोमांचक कहानियाँ मेरे पढ़ने में आयी । उन वीरों ने देश की स्वतन्त्रता के लिए किस प्रकार प्राणों की आहुतियाँ तक देने का महान् त्यागव्रत स्वीकार किया, इसका मनन करते हुए मेरे दिल में भो देश की स्वतन्त्रता की आग सुलगने लगी। मैंने जो साधु का वेष पहन रखा था, उसमें रहते हुए मैं ऐसे किसो क्रातिकारी मार्ग का अनुसरण नहीं कर सकता था । ऐसे अनेक विचारों के कारण मुझे वह वेष मन में खटकने लगा । मुझे लगने लगा कि अपने स्वातन्त्र्य प्रेम के लिए अनेक प्रकार के लोगों का सम्पर्क करना चाहिये, अनेक स्थानों में भ्रमण करना चाहिये, जरूरत पड़े तो विदेशी भेष पहन कर विदेशों में भी जाना चाहिये और वहाँ के जन जीवन का प्रत्यक्ष अनुभव करना चाहिये । ये बातें मैं प्रपने उस साधु वेष में रहकर नहीं कर सकता था । इसलिए बहुत मनोमंथन के बाद उस सम्मानास्पद और अनेक जनों द्वारा वन्दनीय माने जाने वाले वेष का परित्याग करना पड़ा । ऐसी ही कहानी कहने वाला मेरा यह वेषत्याग रूप जीवन - प्रपत्र का परिवर्तनात्मक किंचित वर्णन है । पाठक इसे एक क्षुद्र जीवन की प्रस्त-व्यस्त कथा के सिवाय उसका और कुछ महत्व न समझें । इन्हीं पंक्तियों के साथ मैं अपना किंचित् प्रस्ताविक समाप्त करता हूँ । माघ शुक्ला १४ वि० सं० २०३२, दिनांक १४-२-७६ Jain Education International ( ε) For Private & Personal Use Only मुनिजनविजय निवास सर्वोदय आश्रम चन्देरिया (चित्तौड़गढ़) www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110