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स्थानकवासी संप्रदाय का मोवनानुभव
( ७६ )
सूर्य जो हमें दिखाई दे रहै वे क्या है, तथा आकाश में जो ये असंख्य तारे दिखाई देते हैं वे क्या है ? उनकी गति, स्थिति आदि क्या है ? इत्यादि भूगोल सम्बन्धी जो बड़ी-बड़ी बातें हैं, वह प्रत्येक स्कूली विद्यार्थी जान सकता है । उनके सामने आप लोग जो जम्बुद्वोप, ढाईद्वीप आदि की बातें करते हैं वे केवल कपोल कल्पना जैसी ही लगती है। स्वामी दयानन्दजों ने इन्हीं बातों को लक्ष्य कर इस सत्यार्थ प्रकाश में जैन धर्म विषयक कुछ विचार लिखें हैं। आप लोगों को चाहिये कि इनका गहरा अध्ययन करें और इनका कोई समुचित उत्तर देना जैसा लगे वह दें। मेरे पिता जैन धर्म के कुछ अच्छे जानकार हैं और उनके साथ मैं ऐसी चर्चा कभी कभो किया करता हूँ। मैंने अपने पिताजी से सुना कि आप जैन शास्त्रों का ठीक-ठोक अध्ययन कर रहे है और साथ में मराठी भाषा के साहित्य का भी कुछ परिचय प्राप्त कर रहे हैं । इसलिए आपके पास ये बातें मैंने कहो हैं । पार साधु लोग तो ऐसी बातें सुनाना भी नहीं चाहते । यह सुनकर मैंने उससे कहा कि भाई तुम्हारी यह बाते मुझे बहुत अच्छी लगी है और मेरी जिज्ञासा भी ऐसे विषयों का विशेष ज्ञान प्राप्त करने की रहा करती हैं परंतु हम साधुओं का जो प्राचार विचार है उसके कारणा मैं अपनी जिज्ञासा को तृप्त नहीं कर सकता । इत्यादि बातें उस युवक से दो-चार दिन खुल्ले मन से होती रही और जिस प्रकार वारी में उस शिक्षित अज्ञात मास्टर के समागम से मुझे कुछ अपने अध्ययन का कोई नया प्राभास दिखाई दिया इसी तरह इस जैन शिक्षित युवक के साथ वार्तालाप करने से जैन शास्त्रों का अध्ययन किस दृष्टि से करना चाहिये इसका भी मुझे कुछ नूतन प्रतिमास होने लगा । अब आने वाले वर्ष में इन कुछ सुने सुनाये अस्त व्यस्त विचारों ने कैसा रुप धारण किया, इसका कुछ परिचय आगे दिया जा रहा हैं।
भुसावल से मालवे की तरफ प्रयाण
भुसावल का चातुर्मास समाप्त होने पर हमने इन्दौर की तरफ जाने का विचार किया, रास्ते में बहनिपुर, खण्डवा आदि स्थानों में होते हुए कोई महिने बाद हम अपने उसो परिचित इन्दौर शहर में पहूँचे। वहां पर सुना कि अगले दो एक महिनों में रतलाम शहर में स्थानक वासी जैन सम्प्रदाय की एक बहुत बड़ी कान्फ स ( सभा ) हो रही है उसमें अनेक साधु-साध्वियों का समुदाय उपस्थित होने वाला है । हम लोगों की इच्छा वहां जाने को हुई अतः हम वहां से विहार करते हुए बदनावर - बड़नगर आदि कई स्थानों में घूमते हुए रतलाम पहूँचे ।
जैसा कि उपर सूचित किया है रतलाम में हमारे धर्मदासजी के सम्प्रदाय का जो धर्म
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