Book Title: Meri Jivan Prapanch Katha
Author(s): Jinvijay
Publisher: Sarvoday Sadhnashram Chittorgadh

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Page 99
________________ । ८४ ) मेरो जोवन प्रपंच कथा ___ इसलिए मैंने रंगलाल से पूछा कि मूर्तिपूजक साधु ऐसी विद्या अध्ययन कहाँ और कैसे करते रहते हैं ? तब उसने कहा कि मूर्तिपूजक कई साधु स्वयं अच्छे विद्वान होते हैं इससे वे अपने शिष्यों को स्वय पढ़ाते रहते हैं तथा व्याकरण, काव्य, कोष न्याय आदि के संस्कृत भाषा के ग्रन्थों का अध्ययन कराने के लिए अच्छे ब्राह्मण पंडित भी उनके पास रहते हैं, जिनके खर्चे की व्यवस्था श्रावक लोग करते हैं । जहाँ पर वे साधु चातुर्मास करते हैं वहाँ पर ऐसे साह्मण पडितों को काशी आदि स्थानों से बुलाया जाता है और वे साधुओं को व्याकरण प्रादि विषयों के ग्रन्थ पढ़ाते रहते हैं । रगलाल ने कहा कि मेरे गुरू के जो बड़े गुरू राजेन्द्र सूरि थे उनके पास ऐसे दो-चार ब्राह्मण पडित हमेशा रहा करते थे। उन्होंने जो बहुत बड़ा जैन ग्रागमों का कोष अन्य बनाया है उसके वनाने, लिखने, छपवाने आदि के काम में भी ये पंडित लोग मदद करते रहे हैं। मैंने भी ऐसे ही एक पडित से संस्कृत व्याकरण सोखना शुरू किया था। उसने बताया कि हमारे सम्प्रदाय के तो ५-७ साधु हो ऐसे अच्छे विद्वान हैं परन्तु गुजरात में जो और सम्प्रदाय के ऐसे मूर्तिपूजक साधु हैं उनमें कई बहुत बड़े२ विद्वान हैं । हमारे सम्प्रदाय के श्रावकों ने दो वर्ष पहले मारवाड़ के एक गांव से समुजय को यात्रा के लिए संघ निकाला जिसमें सैंकड़ों भाई बहिन सम्मिलित हुए अोर हमारे सम्प्रदाय के १५-२० साधु और कुछ साध्धियाँ भी उसमें साथ थे । हम लोग प्रावु, तारंगा, पालनपुर, पाटन, संखेपर आदि स्थानों की यात्रा करते हुए अहमदाबाद, भावनगर, ग्रादि शहरों में होकर पालोताना नगर में पहुंचे थे, वहाँ पर गुजरात से भी ऐसे दो-तीन संघ आये, उनमें वैस हो कई साधुसाध्वी थे । हमने यात्रा के समय पाटन, अहमदाबाद, भावनगर आदि शहरों में बहुत बड़े-बड़े उपाश्रय देखे और वहाँ पर रहने वाले अनेक साधु-साध्वी भी देखने को मिलें । रंगलाल की ऐसी अनेक बातें सुनकर मेरे मन में इससे उक्त मूर्तिपूजक सम्प्रदाय की कुछ विशेप ब तें जानने को भी जिज्ञाषा बढ़ी क्योंकि मेरा उस सम्प्रदाय विषयक ज्ञान बहुत ही अल्प था और रंगलाल उक्त रूप में उस सम्प्रदाय को सारी बातें अच्छी तरह से जानने वाला मालूम पड़ा । वहीं कुछ बुद्धिमान था और मारवाड़, गुजरात, मालवा आदि कई स्थानों में रह चुका था जहाँ उसको कई प्रकार के श्रावक भाईयों का परिचय प्रात हुअा था । कुछ अखबार तथा पत्र-पत्रिकाएं भी पता रहता था। गुजराती भाषा भी वह टीक-ठीक समझता था। इस दृष्टि से मुझे लगा कि मेरी अपेक्षा वह कुछ अधिक जानने व ला है। पर वह स्वभाव का बड़ा ते जसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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