Book Title: Meri Jivan Prapanch Katha
Author(s): Jinvijay
Publisher: Sarvoday Sadhnashram Chittorgadh

Previous | Next

Page 107
________________ (६२) मेरो जोवन प्रपंच कथा के तकीये के नीचे इस तरह रख दिया कि सुबह होने पर वह साधुओं के हाथ में प्राजाय । इस कागज में तपस्वी जी को उड्डीष्ट कर निम्न आशय की दो-चार पक्तियां मैंने लिख रखी थी । उसका आशय कुछ इस प्रकार था "बहुत दिनों से मेरा मन उद्विघ्न रहता है मुझे इस साधु जीवन में अब अानन्द नहीं प्रारहा है । मेरी इच्छा शुरू से ही कुछ विशिष्ट प्रकार के विद्याध्ययन करने की रही है । इस छोटे से सम्प्रदाय में मेरी विद्या पढ़ने को वह लालसा पूरी हो सके ऐसा मुझे नहीं लगता । अत: मैं कहीं ऐसे समुदाय में जाना चाहता हूँ जहाँ मेरा पड़ने की भूख मिट सके । अापका स्नेह मुझ पर सदा से बहुत अधिक रहा है मैंने भी प्रापके मन को कोई दुख हो ऐसा व्यवह र कभी नहीं किया। मैं अापकी प्राज्ञानुसार सदा अपना साधु धर्म पालता रहा । पर मैं अपने इस उद्विध्न मन को किसो तरह शांत रखने में असमर्थ होने से अब कोई किसी अन्य रास्ते जाना चाहता हूँ । मेरे जाने से प्रापको बहुत प्राघात लगेगा ऐसा मैं अच्छी तरह जानता हूँ। पर मैं लाचार हूँ अतः पाप मेरो इस कृतघ्नता को क्षमा करें और मेरे लिए अब पाप ओर किसो प्रकार का प्रयत्न न करें ।” कुछ थोड़ा सा पानी ले कर एक पात्र झ लो में रखा और भरे हुए हृदय से उस स्थानक से बाहर निकला कुछ गलियों में होता हुअा मैं क्षिप्रा नदी को उस चट्टान को और च ठा। रास्ता कुछ लम्बा था वहाँ पहुँचते-पहँचते बादल खूब घिर प्राये थे और योड़ा-थोड़ी बून्दे भी गिरने लगी। मैं नदा के पुल के पुक्क र वाले थम्बे के नीचे जाकर रूहा । देखा तो क्षिप्रा नदी में बड़े जोरों से पानी का प्रवाह बढ़ रहा था उस खम्बे से कोई ८-१० फुट को दूरो पर पानी हिलोले ले रहा था । इस दृश्य को देखने के लिए मेरा मन स्थंभीत सा हो गया परन्तु मुझे जिस गाड़ी में बैठकर रवाना होना था वह नदो के पुल के पास वालो केबी। की तरफ आते ही वाली थी इस केहीन से नदो के पुल पर छाटा-बड़ी दोनों लाईनें एक साथ चलने वालो होने से गाड़ी वहाँ ४-५ मिनिट ठहरा करतो थो वहीं से गाड़ी में चढ़ने का मैंने सोच रखा था इसलिए बड़ी शीव्रता से मैंने अपने र जोहरण को खोला और डांडो निकाल लो फिर उस रनोहरण का पात्र में रखा तथा उनके साथ मुह पत्ति भी खोलकर उसमें रख दो फिर पात्र को झोली वाले कपड़े में ठीक बांधकर जिस तरह सात-आठ वर्ष पहले उस खाखी बाबा के भेष वाले डंड, कमण्डल, चिमटा आदि उपकरणों को इस नदी में बहा दिया था। उसी तरह इस नदो के बहते हुए जल प्रवाह में उसे बहादिया । कई वर्षों तक जिस रजोहरण को मैंने दिन-रात अपने साथ लिए फिरता था। उसको और जो मुह पत्ती मैंने मुह पर दिन-रात बाँध रखी थी उसको भी मूह से अलग करते हुए मेरे मन में कई विचित्र भाव उत्पन्न हुए । परन्तु मनुष्य का मन ऐसा विचित्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 105 106 107 108 109 110