Book Title: Meri Jivan Prapanch Katha
Author(s): Jinvijay
Publisher: Sarvoday Sadhnashram Chittorgadh

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Page 105
________________ ε ) बैठ जाते और मेरे साथ कई प्रकार की सामान्य बातें किया करते । पहले मैं जिस तरह उनकी बातों में रस लेता था वह रस मेरा अब कम होता जा रहा था। मेरी तरफ वैसे भाई-बहनों का कुछ अधिक आकर्षण रहता था । परन्तु अब मुझे वह आर्कषण भाव एक प्रकार का बन्धनस्वरूप लगने लगा | कब और कैसे इस बन्धन की ममता से में मुक्त बनू इसी विचार को दिन रात मन ही मन सोचा करता और किसी को मेरे मन का जरा भी प्राभास न होने पावे इसका रास्ता मैं खोजने लगा । तपस्वीजी की ममता मुझ पर सब अधिक थी और मैं इनको गु चुप छोड़कर चला जाऊँ तो इनके मन को कैसा आघात पहुँचेगा, इसकी कल्पना मुझे व्य बनाता रहती थी । परन्तु एक न एक दिन मुझे अपने जीवन क्रम को अब निश्चित रूप से बदलना है और जब कभी मैं ऐसा करूँगा, तब तपस्वीजी को प्राघात होगा ही । ऐसो बातें में रात को बिछौने में पड़ा-पड़ा कई दिनों तक सोचता रहा । मेरो जोवन प्रपंच कथा मे मैं शौच के लिए हमेशा क्षिप्रा नदी के तट की तरफ जाता रहता था कभी अन्य साधुत्रों के साथ और कभी-कभी मैं अकेला ही क्षिप्रा नदी का जो रेल्वे का पुल था उसकी बाई तरफ २००-४०० कदम के फासले पर एक खाली ऊँची पत्थर की चट्टान थी उस चट्टान पर मैं कई दफा जाकर बैठा करता और नदी का प्रवाह तथा सामने के खेतों वगैरह के हृष्यों का देखने से मेरा मन प्रसन्न रहता था । वहाँ पर बैठे२ एक दिन सहसा मेरे मन में स्त्रीकृत बन्धन मुक्ति पाने का अस्पष्ट खयाल हो आया। उस चट्टान से कुछ हो दूरी पर रेल्वे का लम्बा पुल था जिस पर बगल में मनुष्यों के चलने के लिए पटरी बनी हुई थी । उस पटरी पर ह लोग प्रायः नदी को पार करते रहते थे । उसको दूसरी तरफ दाहिनी ओर कुछ दूरी पर वह मठ था जिसमें मैं किसन भैरव के रूप में ७-८ वर्ष पहने २-३ महिने रहा था । उसकी वह स्मृति मेरे मन में हो आई कि किस तरह एक रात को मैं गुपचुप उ। मठ से चल निकला और खाखी बाबा के भेष स्परूप जो डंड, कमण्डल, चिमटा आदि चीजें मेरे पास थी उनको क्षिप्रा नदी में बहाकर नये रास्ते पर चल पड़ा । ठीक वसा ही अब यह एक और प्रसग मेरे लिए उपस्थित होता हुआ मुझे दृष्टि गोचर होने लगा । यह कल्पना कुछ प्राघात जनक भो थो और जीवन के किसी नये प्रवाह में कूद पड़ने को प्रेरणादायक भी था । तपस्वीजी की तपस्या का पारणा शांति पूर्वक हो गया । हमेशा की तरह अधिक लोगों का कोई आवागमन नही रहा । १०-२० दिनों में वे ठीक स्वस्थ हा गये । मेरा उद्विघ्न मन मेरे धैर्य को कुटा रहा था और मैं उस दिन की शिघ्रता से प्रतिक्षा करने लगा । मेरे मन में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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