Book Title: Meri Jivan Prapanch Katha
Author(s): Jinvijay
Publisher: Sarvoday Sadhnashram Chittorgadh

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Page 104
________________ स्थानकवासो संप्रदाय का जीवनानुभव ( ८६ ) में पायी जिसका नाम अज्ञानतिमिरभास्कर था। इस ग्रन्थ में खासकर जैन धर्म के बारे में ब्राह्मगों के वेद आदि ग्रन्यों में, जो प्राक्षेपात्मक बातें हैं, उनका उतर उसी तरह दिया गया था। स्वामी दयानन्दजी ने भी सत्यार्थ प्रकाश नामक पुस्तक में जो जैन मत के प्राक्षेप रूप में ली वा हुमा था, उसका भी खण्डन आदि किया गया था। इस प्रकार उन प्राचार्य आत्मारामजी के, इन ग्रन्थों को पढ़कर मेरे मन में उनको विद्ववत्ता और गहरे ज्ञान का बहुत प्रभाव पड़ने लगा उन दो महिनों में उनके ग्रन्थों को मैंने कई बार पढ़ा। मेरे मन में होने लगा कि ऐसे ही किसी विद्वान की सेवामें रहकर मुझे अपना ज्ञान बढ़ाना चाहिये । ___ उक्त पुस्तकों में उनके जोवन चरित्र के बारे में भी जो कुछ बातें लिखी हुई थीं उनको भी मैंने ठीक ढग से पढ़ी । उससे मालूम हुआ कि वे भी पजाब में पहले स्थानकवासी सम्प्रदाय दीक्षित हुए थे और बाद में शास्त्रों के अध्ययन से उनका विचार परिवर्तन हुअा । तद् - नुसार वे मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में दीक्षित हुए। उनके गुरू बुट्टरायजी थे। जो भी पहले स्थानकवासी साधु थे और बाद में मूर्तिपूजक साधु का वेष धारण कर संवेगी साधु बने । प्रात्मारामजी तो अठारह साधुओं के साथ वेष परिवर्तन कर संवेगी साधु बने और फिर इस सम्प्रदाय में अपनो विद्ववत्ता के कारण वे बहुत बड़े प्राचार्य बने । उनकी इस प्रकार को जीवन कथा ने मेरे मन को खूब पान्दालित कर दिया । अगर मुझे भी किसी प्रकार का अच्छा विद्या अध्ययन करना है ता वस हा किसी मार्ग का अनुसरण करना चाहिये। मैं इन विचारों के कारण मन में प्राकुलव्याकुल रहने लगा। तपस्वी जी को इस बार को तपस्या में पिछले दिनों में शिथलता का अनुभव हाने लगा। पहले को तरह उनका व्याख्यान अादि में उत्साह नहीं दिखाई देने लगा । कमजोरी अधिक महसूस होने के कारण पिछले कुछ १५-२० दिनों में वे दही के मठ्ठ का वे उपयोग करने लगे। हम उन साधुनों के सिवाय अन्य किसी को ये बात ज्ञात नहीं होने दो । अचलदासजी और मुन्नालाल जो श्रावकों के घर से दही बहर लाते थे । और उसे अच्छी तरह थोड़े से पानी में घोल कर तपस्वी जी को पिला दिया जाता था। यू उनका शरीर ठींगना और अच्छा गठोला था तो की उस पर कमजोरी का प्रभाव दिखाई पड़ रहा था । व्याख्यान में भी उनके पास मुन्नालालजी बैठा करते और वे कुछ ढाल, चौपाई आदि सुनाया करते । मैं थानक की ऊपर की मंजिल में बैठा रहता और कुछ किशोर भाई-बहन मेरे पास आकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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