Book Title: Meri Jivan Prapanch Katha
Author(s): Jinvijay
Publisher: Sarvoday Sadhnashram Chittorgadh

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Page 108
________________ स्थानकवासी संप्रदाय का जीवनानुभव है कि प्रसंग विशेष प्राप्त होने पर प्राणों से भी अधिक प्रिय, जीवन भर की अत्यन्त प्रिय वस्तु को भी क्षण भर में त्याग देता हैं । और मानो उसके साथ जीवन का कभी कोई सम्बन्ध ही नहीं था ऐसी अनुभूति करने लग जाता है । इसी प्रकार क्षण भर में उन साधु वेष बताने वाले उपकरणों को मैंने निश्चेष्ट मन में नदी से बहा दिया और मेरे मन में हुआ कि अब मैं अपने इस जीवन को ऐसे ही किसी अज्ञात प्रवाह में बहा देने के लिए निकल रहा है । न जाने यह जीवन का प्रपंचमय पिंड कद और कहां जाकर निकलेगा ? ऐसा सोचता हुआ मैं प्रपनी जो चद्दर थी उसको बीच से फाड़कर आधी तो सिर पर लपेट ली और प्रधो शरीर पर लपेट ली जो चोल पट्टा पहने हुए था उसको किसानों की तरह धोतीनुमा बनाकर उसे शरीर के नीचले भाग में लपेट लिया । ( ६३ ) मेरे पास उस समय केवल ये ही दो पुराने मेले वस्त्र थे और इस प्रकार से में सर्वथा निष्किचन और परिग्रह रहित हो गया उस समय में पाणि पात्र दिगम्बर तो नहीं बना पर दो साटक पाला प्राजीवक भीक्षु अवश्य बन गया था । मैं जल्दी पुल के ऊपर सिरे पर चढ़ गया और वहाँ से २५-३० कदम के फासले पर जो गाड़ी आकर खड़ी हुई थी उसके एक डिब्बे में जाकर घुस गया । वर्षा जोरों से बरसनी शुरू हो गई थी और मेरे वे कपड़े पानी से तरबोर हो चुके थे । गाड़ी के डिब्बे में कोई ५-७ ही मनुष्य इधर-उधर बैठे हुए थे और वे भी मेरी ही तरह पानी में तरबतर थे गाड़ी में घुसते ही इन्जीन ने सीटी देदी और गाड़ी धीरे-धीरे सरकने लगी क्योंकि पुल पास ही था और उस पर दोनों लाइनें एक साथ बिछी हुई थी इसलिए गाड़ी आस्ते आस्ते चलने लगी। मैंने खिड़की से नदी के जोर से बहते हुए जल प्रवाह को आखिरी बार ध्यान से देखा गाड़ी ने धीमी आवाज की घड़-घड़ाहट के साथ पुल को पार किया । इस क्षण से मैंने अपने जीवन के नये मार्ग में प्रवास शुरू किया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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