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( ८८ )
मेरो जीवन प्रपंच कथा
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अब तक नहीं पढ़ी थी उसके अन्त में भगवान महावीर से लेकर उन प्राचार्यो का इतिहास लिखा गया था जिन आचार्यों की परम्परा में पुस्तक लिखने वाले स्वयं भी एक प्राचार्य हुए । ये प्राचार्य मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के तपागच्छ नामक शाखा के अनुयायी थे । मेरी रूचि इतिहास के जानने की हो रही था। इसलिए जैन धर्म के इन पूर्वाचार्यों का इतिहास पढ़कर मुझे कुछ इतिहास के प्रकाश का प्राभास होने लगा। मैं कई दफे इन बातों को पढ़ता रहा। जैन धर्म की पूर्व परम्परा का थोड़ा : [ भी ज्ञान मुझे इस पुस्तक के पढ़ने से होने लगा। इसके बाद दूसरी उन प्राचार्य की बड़ी पुस्तक जो तत्त्व निर्णय प्रासाद नामक थी, उसको पढ़ना शुरू किया लेकिन इस ग्रन्थ में अनेक विषयों का पालेखन था जो उस समय मेरी ज्ञान की सीमा के बाहर था । उसके अन्तगत कुछ जैन धर्म से सम्बन्ध रखने वाले प्राचीन शिला लेखों का भी वर्णन दिया गया था। मथुरा में मिली हुई कुछ दो हजार वर्ष जितनी पुरानो जैनमूर्तियो के शिला लेखों के बारे में भी कई बातें लिखी हुई थी जिन्हें पढ़कर मैं विस्मीत सा हुआ । हमारे उस सम्प्रदाय को मान्यता के अनुसार तो जैन मन्दिर और मूर्तियों का बनना, भगवान महावीर के निर्वाण से कई ८२०-६०० वर्ष पीछे शुरू हुया । इस मूतिपूजा को चलाने वाले पाखंडी प्राचार्य थे उन्होंने अपनी पेट-पूग की दृष्टि से मूर्तिपूजा का पाखण्ड चलाया इत्यादि। इसलिए मूर्तिपूजा स्थानकवासी सम्प्रदाय में मान्य नहीं है। उस विषय की छोटी-बड़ो कई पुस्तकें जो लिखी गई, मुझे उनका तो विशेष ज्ञान नहीं था पर कई बार मूर्तिपूजा के बारे में हमारे साधु लोग जो चर्चाए करते रहते थे, उसका कुछ थोड़ा सा मुझे परिज़ान था । उस विषय की समकोतसार नाम को एक पुस्तक स्थानकवासो स्वामो जे उपल नी ने बनाई थी वह मैंने जरूर पढ़ी थी क्योंकि मेरी रूचि जिन मन्दिर पोर जिन मूति के विध में जानने की रहा करती थी पूर्वावस्था में मैं जैन यतिजनों के संमग में रहा था इसलिए मेरे मन में जैन मन्दिर तथा जिन मूर्ति के संस्कार दबे हुए थे इसका विशेष चर्चा का तो यहाँ कोई खास प्रसंग नहीं है ।
___ मुझे उक्त तत्व निर्णय प्रासाद ग्रन्थ में २००० वर्ष पुराने जैन मूर्तियों के लेवों के विसर में कुछ, ज्ञान प्राप्त कर मेरी उक्त विषयक मान्यता में सदेहात्मक विचार उत्पन्न होने लगे । मैं सोचने लगा कि इस प्रकार जब २.०० वर्ष से भी अधिक पुरानी जैन मुतिया मिलता है और उसमें कई बड़े पुराने प्राचार्यों के नाम मिलते हैं जो कल्पसूत्र की थेरावला के नामों से सबंध रखते हैं। यह जानकर मेरी जैन मूर्तियों की प्राचीनता के विषय में भी जो मान्यता थी उस में परिवर्तन होने लगा।
इसी प्रकार उन प्राचार्य की बनाई हुई एक अन्य पुस्तक भी उन पुस्तकों में मेरे देखने
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