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मेरी जीवन प्रपंच कपा
आ गए पर उज्जैन पहुँचने के पहले ही रास्ते में वह रंगलाल तो कुछ लड़-झगड़ कर भेष छोड़कर चला गया ।
उज्जैन का चातुर्मास और मेरे उस वेष का विसर्जन
चातुर्मास का प्रारम्भ होने पर तपस्वीजी ने ५० दिन के उपवास जैसो तपस्या स्वीकार की। उनकी ख्याती उसी रूप में विशेष थी। जहाँ कहीं वे चातुर्मास रहते वहां के श्रावक उनकी वैसी लम्बी तपस्या की आशा हमेशा रखते । पर इस बार उज्जैन के श्रावकों का वैसा उत्साह नहीं दिखाई दिया और उन्होंने वैसी तपस्या विषयक आमन्त्रण पत्रिकाएं भी नहीं छपवाई। उधर नयापुरा में भी नन्दलालजी के साथ वाले एक साधु ने कोई ४५ या ५० दिन के उपवास का पच्चकखाण ले लीया था इसलिए बाहर वाले श्रावकों का आवागमन भी बहुत जोरदार नहीं रहा । उनकी तपस्या का यही उद्देश्य रहता था कि तपस्या के निमित्त लोग उनके दर्शनार्थ अधिक पावे जावें ।
यो तो ऐसी तपस्या करने वालों का और कोई ऊंचा उद्देश्य मैंरे अनुभव में नहीं पाया। जो साधु -साध्वी अथवा बहिनें ऐसी लंबी तपस्या करते रहते है । उन सब का लक्ष्य प्रायः प्रसिद्धो
और जन सम्मान प्राप्त करने का ही दिखने में आया है । कर्मों की निर्जरा हो, ऐसा शुद्ध भाव रख कर लंबी तपस्या करने वाला शायद ही कोई व्यक्ति मालुम दें । ज्यों ज्यों में कुछ सोनने की शक्ति प्राप्त करता गया और मुझे कुछ अपने जोवन के लक्ष्य के बारे में भी कभी कोई विचार मंतर में उठने लगा त्यों त्यों मेरे मन में तपस्वी जी को ऐसो लबो तपस्या के बारे में कोई विशेष श्रद्धा नहीं रहने लगी । पर उनका स्नेह भाव मुझ पर सबसे अधिक रहता था । वे मुझ से भविष्य में किसी विशेष प्रकार की योग्यता की प्राशा रखते थे । वे मुझे दो - तीन वर्ष में अपने समुदाय का पूज्य बनाना सोच रहे थे । इस प्रकार को कोई कोई बात वे अपने भक्त जनों के आगे किया भी करते थे । वारो में जब हमारा चातुर्मास था । ओर वहां पर जो साध्वियां आदि थीं तव ऐसी बान अक्सर निकला करती थी । बाद में जब चम्पालाल जी के साथ विचरण हुआ और उनको मालवे की तरफ विचरने का तपस्वोजी ने आग्रह किया तब भी उनके मन में ऐसी ही कोई बात थी । वे सोचते थे कि गुरु रामरतनजी के शिष्यों में कोई अभी ऐसा संयोग उपस्थित नहीं हुप्रा । परन्तु हमारे इस समुदाय के ५ . १० साधु और १०.१५
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