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स्थानकवासो संप्रदाय का जोवनानुभव
( ८५ )
था। कई दफा वह अपने साधुओं के साथ लड़ने लगता था, जिसे देखकर मुझे उससे कुछ संकोच भी हुआ करता था ।
___ इस प्रकार कोई डेढ महिना हमारा और उसका साथ रहा पर उसको बातों ने मेरे मन को अपने चालु जीवन क्रम में एक बड़ा क्षोभ उत्पन्न कर दिया और मेरे विचार किसी और ही रास्ते की और मुड़ने लगे। मुझे लगा कि इस समुदाय में रह कर मैं अपनो विद्या की भूख को नहीं मिटा सकता। मुझे अपना ज्ञान बढ़ाने को यहां कोई गुन्जाईश नहीं मालूम देतो । मुझे बार-बार अपने गुरू यति देवीहंसजी का वह अन्तिम वाक्य याद अ.ने लगा। जिसमें उन्होंने कहा था कि "बच्चा तू खूब विद्या पढ़ने का प्रयत्न करना और जहाँ विद्या पढ़ने का स्थान मिले वहां पर रहना विद्या पढ़ने ही से तेरा जन्म सफल होगा, इत्यादि ।" मैने ऐसी ही कुछ विद्या पढ़ने के लिए खाखी बाबा का साथ किया वहां कुछ न मिलने से फिर भटकते फिरते यह स्कवासी साधु वेष धारण किया। पर यहां पर भी मेरी कुछ विशिष्ट विद्या सोखने की कोई प्राशा सफल नहीं हुई । पिछले ४-५ वर्षों में जो कुछ में यहां सीख पाया, जान. सका उसने मेरी प्रतर की जिज्ञासा को तृप्त करने का कोई मार्ग दिख नहीं रहा है। इस समुदाय की प्रथा और रूढ़ी के अनुसार मैं थोड़ा बहुत जैन सूत्रों का धोरे-धीरे अध्ययन बढ़ा सकता हूँ और ढाल, चौपाई, रास आदि पढ़-पढ़ कर लोगों को व्याख्यान सुनाता रहूँगा । साथ में कुछ कया कहानियां याद कर लोगो को सुनाते रहने से सुनने वालों का कुछ मनोरंजन भी कर सकू गा, पर इससे इतिहास और भूगोल आदि की जो बातें मैं खासकर जानना चाहता हूँ उनके जानने पहने का यहाँ कोई संयोग ही नहीं दिखाई देता । यहां तो केवल तपस्या और शुष्क कठोर प्राचार का पालन हो जीवन का मुख्य लक्ष्य है और उसके द्वारा मानने वाले भक्तजनों के वन्दन नमन आदि अवि- : चार प्रदर्शित सन्मान की प्राप्ति देखकर ही जीवन को सफलता मान लेनी है। गलाल के स्वल्प संसर्ग ने मेरे मन को अपने लक्ष्य से विचलित कर दिया । मेरे मन में अज्ञात भाव से ऐसा संस्कार जमने लगा कि क्यों न मैं मूर्तिपूजक साधु बनकर अपनो विद्या की भूख मिटाने का विचार करू ?
हम साधुनों का उज्जैन में चातुर्मास करने का विचार हो चुा था इसलिए खाचरे द ग्रादि कुछ गांवों में घूमते फिरते चातुर्मास के कुछ दिन पहले जैन के उस लुणमण्डी वाले धर्म स्थानक मैं पहुंच गए इधर नन्दलालजी स्वामी भी अपने शिष्यों के साथ आगर आदि स्थानों में होते हुए वे भी उज्जैन के नयापुरा नामक स्थान के श्रावकों के आग्रह से वहां पर चातुर्मास के लिए
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