Book Title: Meri Jivan Prapanch Katha
Author(s): Jinvijay
Publisher: Sarvoday Sadhnashram Chittorgadh

Previous | Next

Page 97
________________ मेरो जीवन प्रपंच कथा रतलाम में जितने दिन हम रहे नन्दलालजी स्वामीजी के मेरी ही समान उम्र वाले तथा मेरी ही नाम राशी चाले छोटे साधु किसनलालजी के साथ मेरा अधिक सख्य भाव हो गया । हम दोनों एक साथ बैठते और अपने अध्ययन प्रादि को बातें विचारा करते। मैं तीन वर्ष दक्षिण में परिभ्रमण कर आया था इससे वहाँ के कुछ अपने अनुभव मैंने सुनाए । मैंने उनसे कहा कि हम लोगों को अपना ज्ञान बढ़ाने के लिए कोई विशेष स्थान में रहना चाहिये और किसी प्रकार अपने सूत्रों का गहरा अध्ययन करने का प्रयत्न करना चाहिये इत्यादि, कई बातें उनसे हुआ करतो । दक्षिण में रहते हुए मैने मराठी भाषा का जो परिचय प्राप्त किया तथा उसकी कुछ इतिहास आदि की पुस्तकें पढ़ी उसका भी कुछ जिक्र उनसे किया पर मुझे मालूम हुआ कि उनकी इन बातों में कोई जिज्ञासा नहीं थी। उनका लक्ष्य तो था कि किस तरह ढाल, चौपाई, गजलें आदि गा कर सुनने वाले लोगों को मन आकर्षित किया जाय उनका कठ भी कुछ अच्छा था और ये चोथमलजी की तरह व्याख्यान कला में निपुणता प्राप्त करने की इच्छा रखा करते थे। आने वाला चातुर्मास तपस्वीजी ने उज्जैन में करने का विचार किया । इधर नन्दलालजी भो बहुत वर्षों से उज्जैन की तरफ नहीं विचरे थे इसलिए उज्जैन होकर मालवे में अगर अादि गांवों को तरफ विचरने का हुआ । कुछ दिनों तक हम दोनों ही समुदायों ने एक साथ विचरण किया । .. नन्दलालजी के साथ: ३-४ साधु-थे उनमें एक तो एक वर्ष की उम्र का नव दोक्षित साधु था जो पहले मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में दीक्षित हुअा था। उसने मारवाड़ में त्रिस्तुतो सम्प्रदाय (जिसको लोग सामान्य रूप से ताम थुई वालों का सम्प्रदाय व हा करते हैं । ) के एक विद्वान् सावु के पास से दक्षा ली थी। इस त्रीस्तुतीय सम्प्रदाय के संस्थापक राजेन्द्र सूरि नाम के एक बहुत अच्छे विद्वान् साधु थे । वे संस्कृत और प्राकृत भाषा के बड़े विद्वान् थे । 'अभी धानराजेन्द्र, नाम का प्राकृत भाषा का बहुत बड़ा कोष ग्रन्थ उन्होंने कई वर्षों के परिश्रमपूर्वक बनाया। उनकी आम्नाय वाले मालवे में जावरा, रतलाम आदि नगरों में भी कई अनुरागी भाई थे । स्तलाम में ही उक्त कोष के छपवाने का कार्यालय था। परन्तु रतलाम में रहते हुए हमें उसका कुछ भी ज्ञान नहीं हुमाः। जिस साधु ने नन्दलाल जी के पास त्रीस्तुतोय सम्प्रदाय का भेष छोड़. कर स्थानकवासी सम्प्रदाय का भेष धारण कर लिया था। वह किसी लड़ाई झगड़े के कारण हो उक्त सम्प्रदाय छोड़कर इस. सम्प्रदाय में दीक्षित हो गया था । पर उसका मन इस नूतन सम्प्रदाय में लग नहीं रहा था। इस सम्प्रदाय के प्राचार-विचार उसे कठिन से लग रहे थे। उसके कुछ विचारों से मुझे लगा कि वह शायद थोड़े हो दिन में इस भेष को छोड़कर चले जाने की कोई बात मन में सोच रहा है। यों वह मेरे पास खुल्ले दिल से कुछ बातें करने लगा उसको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110