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स्थानकवासी संप्रदाय का जीवनानुभव
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लकड़ी के सह खम्भे और छत के पाट आदि थे । अर्थात् वह एक पुराने जमाने की बहुमूल्य वाली हवेलो समझो जाती थी। मैंने इस हवेली को एक बार जा कर अपनी आंखों से देखा था ।
उज्जैन के चतुर्मास के प्रारम्भ होने पर तपस्वीजी महाराज अपने वर्षों के अभ्यासानुसार पचपन यां साठ दिवस के उपवास करने प्रारम्भ कर दिये। जिनकी समाप्ति भाद्रपद में पर्युषण के बाद होती थी। तपस्वीजी की दीर्घ तपस्या को आसपास के प्रदेश में काफी प्रसिद्धि हुआ करती थी और जिसको जानकर सैंकड़ों श्रावक, श्राविकायें तपस्वीजी के दर्शन वन्दन करने निमित्त पाते जाते थे। तपस्वीजी महाराज हमेशा सुबह घण्टा डेढ़ घण्टा व्याख्यान देते रहते थे। उनका शरीर अच्छा सुगठित था । ठिंगना कद था । वर्ण से श्याम था । आवाज उनको अच्छी थी, जिससे ढाल, चौपाई आदि गाने में उनको कोई कठिनाई नहीं होती थी। तपस्या के अन्तिम दिनों तक उनके शरीर में खास कोई थकावट के चिन्ह दिखाई नहीं देते थे । परिचित श्रावक जनों की जान पहचान वे काफी रखते थे। जिससे दर्शन वन्दन करने वाले भाई बहिनों को वे तुरंत पहचान लेते थे और उनके नाम गोत्रादि तथा कुटुम्बी जनों के बारे में भी अपनी जानकारी जता देते थे। इस तरह तपस्वीजी का परिचित श्रावक वर्ग काफो था और वे उसके दर्शनार्थ तपस्या के निमित्त सदा पाया करते थे । उज्जैन के चातुर्मास में भी यही क्रम चलता रहा ।
पारणा के निमित्त अधिक संख्या में भाई बहिन उपस्थित हो जाते थे। तपस्वोजी महाराज का मैं सबसे छोटा शिष्य था और कुछ पढ़ने लिखने में अधिक रूचि रखने वाला था, इसलिये कई श्रावक लोग मुझ से भी परिचय करते रहते थे । मैं अपना सूत्रों को पठन का नियमित कार्यक्रम करता रहता था। उस समय तक मैंने दशवैकालिक, उत्तराध्ययन सूत्र, सूय गड़ांग सूत्र का प्रथम श्रु त स्कंध-कठस्य कर लिये थे । कोई पच्चीस, तोस थोकड़े भी जबानी याद कर लिये थे। कुछ सूत्रों को प्रतिलिपि का काम भा करता रहता था ।
उज्जैन के उस स्थानक में तपस्वीजी महाराज की सम्प्रदाय का कुछ पुराना ग्रन्थ संग्रह रखा हुआ था । जिसको मैं धीरे धीरे देखा करता था, इन ग्रन्थों में प्रायः सूत्र ही अधिक थे और जो देशी भाषा में लिखित टब्बार्थ वाले थे । ग्रन्थ बहुत पुराने नहीं थे । उनमें दो तीन ऐसे पुराने ग्रन्थ थे जो संस्कृत टोका के साथ थे । वे ग्रन्थ तीन सौ चारसी वर्ष जितने पुराने थे । उनमें एक 'उववाई सूत्र' एक रायपशेनी सूत्र और एक अन्तगढ़दशा सूत्र को संस्कृत टीका समेत प्रतियां थी। एक अच्छी पुरानी बड़ी सी प्रति थी जो बहुत सुन्दर लिपि में त्रिपाठी के रूप में लिखी हुई थी। उसका शायद कुछ अन्तिम भाग नहीं था। उस प्रति के बांये हांसिये
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