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लोच नहीं किया था। उन्होंने अपना स्वागत करने वाले भाई-बहनों को मांगलिक पाठ सुनाया और १०-१५ मिनीट तक उपदेशात्मक व्याख्यान दिया । व्याख्यान की समाप्ति होने पर श्रावक भाईयों ने उपस्थित जनों को एक-एक नारियल और कुछ पेड़े श्रादि दिये । बाद में मुनिमहाराज अपने कमरे में गए वहां पर उनके भक्तों ने पहले से ही गरम पानी आदि की व्यवस्था कर रखी थी । फिर फैक्टरी के मालिक सेठ तथा अन्य भाई-बहनों ने मुनिमहाराज से गोचरी के लिए विनती की और तद्नुसार वे झोली में पात्र आदि लेकर गाचरी के लिए गए थोड़ी ही देर में आहार लेकर आ गये । हमारे कमरे में भी आकर एक श्रावक भाई ने गोचरी के लिए कहा । हम में से तपस्वोजी और बड़े शिष्य अचलदासजी हमेशा के मुतबिक ५-७ घरों में आहार लेने के लिए गए । योग्य आहार लेकर आए और हम सबने अपने नियमानुसार आहार- पानी किया ।
मेरो जोवन प्रपंच
मैंने मूर्तिपूजक आम्नाय के साधु मुनि को इतने निकट से कभी नहीं देखा था । यतिवेष का तो मुझे ठीक-ठीक परिचय था । यति लोग जिस तरह रजोहरण (प्रोघा ) सीसम का लंबा डंडा और लकड़ी के पात्र आदि रखते हैं तथा जिस तरह चद्दर शरीर पर लपेटते हैं उनका तो मुझे ठीक परिचय था । परन्तु मूर्तिपूजक साधु, जो खास कर संवेगो साधु कहलाते हैं, उनकी वेषभूषा का मुझे खास ज्ञान नहीं था । इस दृष्टि हमारे ही पड़ौस में प्राकर ठहरने वाले और विशिष्ट प्रकार के स्वागत आदि समारोह पूर्वक आए हुए उक्त साधुजी को देखकर मेरे मन में कई प्रकार के विचित्रभाव उत्पन्न होने लगे। मालूम हुप्रा कि मुनिमहाराज धुलियानगर की ओर से आ रहे हैं और बरहाड़ स्थित अंतरीक्ष पाश्वनाथ को यात्रा को जा रहे हैं । दूसरे दिन सुबह उनका व्याख्यान होना था इसलिए हमारे पास तो कोई भाई प्राए गए नहीं । हम लोगोंने सुबह ही वहाँ से अगले गांव की तरफ विहार कर दिया ।
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तपस्वीजी की इच्छा हुई कि कुछ वर्षों पहले दक्षिण के एक गांव में उन्होंने एकाकी रूप में चातुर्मास किया था और वहां के धनिक श्रावक ने उनकी तपस्या के निमित्त आने जाने वाले दर्शनार्थी भाईयों के भोजन-पान आदि के लिए काफी खर्च किया था, वहाँ जाए । रास्ते में मनमाड, लासलगांव आदि स्थान श्राते थे, जहाँ कुछ दिन ठहरते हुए उस गांव में पहुँचे गांव का नाम तो मुझे ठीक याद नहीं आरहा है, छोटा सा ही गांव था, और गोदावरी नदी के तट पर बसा हुआ था रेल्वे का स्टेशन होने से अनाज वगैरह की अच्छी मण्डा थी । उस गांव में दो-तीन घर ही मारवाड़ी श्रोसवालों के थे, दक्षिण में प्रायः अधिकतर मारवाड़ के ओसवाल लोग सब जगह थोड़ी बहुत सख्या में रहते हैं और व्यापार को कला में कुशल हाने के कारण गांवों
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