Book Title: Meri Jivan Prapanch Katha Author(s): Jinvijay Publisher: Sarvoday Sadhnashram ChittorgadhPage 78
________________ स्थानकवासी संप्रदाय की जोवनानुभव में प्रायः वे ही अच्छे सम्पन्न माने जाते हैं । हम जब उस गांव में पहुँचे तो मालूम हुअा कि वह घनिक ग्रहस्थ तो मर चुका था परन्तु उसकी विधवा स्त्री व्यापार का सर काम अच्छी तरह चला रही थी । दो-तीन दिन ठहर कर हम वहाँ से नासिक आदि स्थानों में होते हुए घोटो और इगतपुरी तक पहुँचे । घाटी में भी तरस्वी जी ने एक चतुर्मास किया था इसलिए उन स्थानों में हम जैसे शिष्या के परिवार के साथ एक दफे हो पाने की इच्छा का होना स्वाभाविक हो था । चौमासे के दिन नजदीक आ रहे थे इसलिए वापस वाघली गांव को पहुँचने के इरादे से जल्दी-जल्दी विहार कर चौमा: के ८-१० दिन पहले वाघली पहुँच गए । उस चौमास में तपस्त्रोजो ने ६० दिन को तपस्या को और इस निमित दूर-दूर से सैकड़ों भाई-बहिन दर्शनार्थ पाते जाते रहे । वाघली के चातुर्भात में मुझे मराठी भाषा के ज्ञान की जिज्ञासा उत्पन्न हुई और मैं श्रावकों के लड़कों के पास से मराठी भाषा को प्रारम्भिक स्कूली पुस्तकें मंगवा कर मैं मराठी का अभ्यास करने लगा तब तक मैंने कोई ऐसो छपी हुई पुस्तकें नहीं देखी थी। उस समय महाराष्ट्र में सामान्य व्यवहार के लिए "मोड़ी" लिपा का प्रचार था। उस लिपी में कुछ प्रारम्भिक पाठ्यपुस्तक भी छाती थी सो कौतुहल वसात मैंने उस लिपि के भी पढ़ने का अभ्यास किया । वाघली से अहमदनगर की और विहार - चातुर्मास के बाद तपस्वीजी की इच्छा हुई कः अहमद नगर जिले की तरफ उनके बड़े गुरू भाई चम्पालालजी रहा करते हैं उनसे मिलने के लिए जाएं। इसलिए हमने उस प्रदेश की तरफ विहार किया । पहले हम अोरंगाबाद गए । वहाँ पर उस समय हैदराबाद के नवाब का राज्य था और मुसलमानों की काफी बड़ी संख्या थी। एक बाजार ऐसा देखने में आया जहाँ पर कसाइयों की दुकानें अधिक थी, परन्तु उनकी दुकानों के पास ही कुछ प्रोसवाल बनियों की भी परचुनी दुकानें थो । मुसलमान, कसाई की दुकान से एक हाथ में मांस मिट्टो लेकर पास के बनिये की दुकान से खाने-पीने की अन्य चीजें खरीदा करते थे । उन बनियो का ऐसा व्यवहार देख कर मेरे मन में बहुत घृणा उत्पन्न हुई । पैसे ही को परमेश्वर समझने वाले उन बनियों को उसका कभी कोई खयाल नहीं प्राता था। मेरे मन में उन बतियों के प्रति एक प्रकार का तिरस्कार भाव हुआ। यद्यपि उनमें का कोई कोई भाई हमारे पास आकर व्याख्यान सुना करते थे और मुह पर मुंह पती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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