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स्थानकवासो संप्रदाय का जीवनानुभव
(६७ ) •mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm पीछे विशाल दालान था जिसमें हजार प्रादमी एक साथ बैठ सके ऐसी खुली हवादार जगह थी। हम साधुओं के ठहरने के लिए एक तरफ का दुकानों का भाग था। दूसरी तरफ के भाग में साध्वोयों को जगह दी गई और जो कोई श्रावक भाई बहन दर्शनार्थ पावें उनके भी ठहरने की व्यवस्था उस तरफ की गई। चातुर्मास के प्रारंभ होते ही ५ दिन बाद तपस्वी मी ने ६५ दिन की लंबी तपस्या का पच्चक्खाण (प्रत्याख्यान लीया । उपर हम कई जगह कह पाए हैं कि तपस्वीजी चातुर्मास में हमेशा ५०-६० दिनों जैनी लंबी तपस्या किया करते थे। इस वर्ष उन्होंने ६५ दिन अर्थात २ महिने और ५ दिन जैसे लो समय के उपवास करना निश्चित किया। ५-१० दिन बीतने पर श्रावकों ने तपस्या विषयक बड़ी पत्रिकाएं छपवाकर अनेक गांवों में जैन भाइयों को भिजवा दी। इसलिए धीरे-धीरे गांवों से छुटकर भाई-बहन तपस्वी जी के दर्शनार्थ पाने शुरु हो गये। ज्यों-ज्यों दिन वोतते जाते त्यों-त्यों लोग अधिक संख्या में पाने लगे। आने वाले भाई वहन २-२, ४-४ दिन वहां ठहरते, जिनकी गांव वाले श्रावक भाई बड़े उत्साह पूर्वक भोजन मादि द्वार सेवा करते थे। तस्वोजी के अनुसरग में जो बडी साध्वीजी वहां थी उनने भी ३५ दिन के उपवास करने प्रारभ किये, इसी तरह एक अन्य विधया बहिन भी जो उन साध्वियों के संसर्ग निमित वहां दूसरे गांव से पाकर रही थी उसने भी एक महिने के उपवास करना निश्चित किया। आहार करने वाले हम दो साधु अर्थात अचलदासजो और में दोनों गुरुभाई रहे। अचलदासजी हमेशा श्रावकों के यहां जाकर यथा योग्य आहार पानो बहर लाया करते थे। हरने भो दिन में एक ही बार पाहार करने का नियम ले लिया था । तपस्वीजो सदैव प्रातः घंटा डेड घण्टा व्याख्यान दिया करते थे, उनके पास व्याख्यान में पट्ट पर अचलदासजी बैठा करते थे । मैं उस दुकाननुमा कमरे में अकेला बैठा-बैठा अपना स्वाध्याय करता रहता था। कभी-कभो साध्वीजी को दो-तीन शिष्याएं भी वहां आकर बैठ जाती और मुझसे कुछ था कड़े आदि का पाठ लिया करती ।।
बीच-बीच में उनको दशवैकालीक के प्रथम के ४ चार अध्ययन भी मैं पढ़ाया करता था और साथ में टब्बार्थ भी समझाया करता था। दोपहर के बाद तपस्वोजी उस बड़े दालान वाले खुले मकान में प्रासन लगाकर बैठ जाते थे। और दर्शनार्थ पाने वाले भाई-बहनों से विविध प्रकार की बातेंचीने किया करते थे बड़ी साध्वी भी अपनी एक शिष्या के साथ पाकर बैठ जाती थी। मेरा मन मराठी भाषा सिखने में लगा हुआ था। मैं सोचता था कि जिस तरह चम्पालाल जो मराठी भाषा में व्याख्यान देते रहते हैं और तुकाराम, नामदेव आदि के अभंगों, पदों आदि को गा गा कर सुनाया करते हैं उसी तरह मैं भी मराठी भाषा में अच्छी तरह व्याख्यान देने का अभ्यास करू । इसलिए मैं मराठी की छोटी-छोटो पाठ्यपुस्तकें लड़कों से मंगवा कर पढ़ता रहता था ! मेरा ऐसा विचार जानकर उन छोटी साध्वियों ने मेरे साथ मराठी में ही वार्तालाप करना शुरु किया। परंतु मेरे
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