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सानकवास संप्रदाय का जोवनानुभव
यह तो उनको नहीं बताया कि मेरा जन्म किस जाती में हुआ है परन्तु मेरो जन्म भूमि रा - पुताने में होने से मैं उस देश का इतिहास पढ़ना चाहता हूँ ऐसा मैंने उनम कहा । फिर शिक्षकजी ने स्वयं दा-तीन मराठी को इतहास की पुस्तकें ला दो, जिनमें एक शिवाजी के इतिहास विषय में थो, दूसरो राजपूतों के इतिहास विषय को थी । मैंने उनमें से सबसे पहले राजपूना के इतिहास विषयक पु तकों को पढ़ना शुरू किया। इसमें चौहान, परमार, राठौड़, गहलोत, प्रतिहार आदि कई राजपूत वशों का संक्षिप्त में इतिहास दिया गया था। इतिहास विषय ज्ञान की मेरी कोई पूर्व भूमिका नहीं थी और नांहीं, मैंने कभी कोई ऐसी व्यवस्थित ढंग से लिखा गई पुस्तक देखी या सुनी थी। उस पुस्तक के पढ़ने से मेरे अन्धकारमय मन में, जैसे किसी अन्धेरी कुटिया में मिट्टी के दिये के धुन्धले प्रकाश जैसा कोई नया प्राभास हाने लगा, वे शिक्षक राष्ट्र प्रेमी थे। उन दिनों महाराष्ट्र में बंग-भंग को लेकर समाचार पत्रों में अग्रेजों को नोति के विरूद्ध बहुत से उन विचारों के लेख छपा करते थे उनमें स्व. लोकमान्य तिलक के मराठी, केसरी पत्र का विशिष्ट स्थान था, उस पत्र में उत्तेजनात्मक अनेक राजनीति सम्बन्धित लेख छपा करते थे। एक दिन वे शिक्षक मेरे पास आये तो उनके हाय में केसरी पत्र के दो चार पुराने अंक थे। उसमें किसी विद्वान का लिखा हुमा एक लेख छा हुवा था । जिसमें यह बताया गया था कि किस तरह अंग्रेजों ने अपनी राजनीति की कुटिल चालों से राजपूताने के राजपूत राज्यों को निःसत्व बनाया और महाराष्ट्र में मराठों की राज्य सना को नष्ट किया इत्यादि । शिक्षकजी ने केसरी पत्र के वे ३-४ अक मुझे दिये और बोले कि इसके पढ़ने से आपको मराठी भाषा का भी ठीक परिचय होगा और देश के इतिहास की भी कई बातों का ज्ञान मिलेगा। फिर शिक्षकजी ने मुझे लोकमान्य तिलक के बारे में कुछ विशेष परिचयं कराया और उनके द्वारा देश में चल रहो राजकीय घटनाओं का भी पूर्व इतिहास समझाया । उनको लगा कि मेरो रूचि कुछ इस विषय में जानने में जागृत हो रही है और उत्सुकता पूर्वक मैं उनकी बातें सुनता रहता हूँ । इसलिए वे दो-तीन घण्टे मेरे पास बैठे रहते और देश तथा धर्म के विषय के अनेक विचार प्रदर्शित करते रहते थे । उनको ये सब बातें सुनकर मेरे अन्धकार पूर्ण अज्ञान मस्तिष्क में कोई नई आभा की सुक्ष्म किरणें प्रवेश कर रही हो ऐसा प्रतिभास होने लगा । मुझे अभी तक ज्ञान के उस क्षेत्र का कोई परिचय नहीं हुआ था। अभी तक जो कुछ मैंने थोड़ा बहुत जाना था उससे मेरे मन में जैन आगमों का और जैन धर्म के साथ सम्बन्ध रखने वाले प्राचार विचारों का अध्ययन करना ही जीवन का मुख्य लक्ष्य बना हुआ था। इसके पहले मुझे इन शिक्षक जैसे किसी. सुपठित पुरूष का कोई समागम नहीं हुआ था। मेरी जिज्ञासा को जानकर उन शिक्षक ने मुझे दो चार मराठी की ऐसी छोटी पुस्तकें लाकर दी, जिनमें बंगाल के राजा राममोहनराय, स्वामी विवेका
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