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स्थानकवासो संप्रदाय का जीवनानुभव
( ७५ )
हुया उसका चित्र आगे के प्रकरण में मिलेगा। तस्वोजी की लम्बी तपस्या के प रगा के समय आस पास के सैकड़ों भाई-बहन वारी गांव में आये साध्वी जी की तपस्या का पारणा भी उसो समय हुमा तथा उस बहन के मा सोपवास का पारणा भी उसी समय सम्पन्न हुआ। इसलिए वह प्रसग इस गांव के लोगों के लिए अद्भुत सा ना । उस तपस्वी बहन के रिस्ते दारों ने उसका फाटू लेने के लिए एक केमरामेन को बाहर से बुलाया। उसने उस बहन के रिस्तेदार आदि का एक ग्रुप फोटू भी लिया। तब उन भाईयों को यह भी इच्छा हुई कि वे हम तीनों साधुओं का भी एक फोटू ले लिया जाय इसके लिए तप:वोजो से निवेदन किया ता प्रथम तो वे साफ इन्कार हो गये । उन्होने कहा कि साधु का फोटू लेना साधु धर्म के विरूद्ध है, क्योंकि इस फ टू के धोने आदि क्रिया में सचित पानी का उपयोग हाता है इसलिए यह साधु के लिए पानाचा र का विष्य है। तथापि मेरी इच्छा फोटू लिवाने की बहुत रही इससे अाग्रह करके मैंने तपस्वीजी को मनाया और हम तोनों साधुनों का एक फोटू उस समय लिया गया। स्थानकवासी साधु जीवन में मेरा यह एक हो फोटू लिया गया था और उसकी फोटू कॉफा जब तक मैं उस वेष में रहा तब तक अपना पाथी के पुठे में सम्भालकर रवी ।।
कुछ दिन बाद उस लघु साध्वी ने कई दफह अाग्रह किया कि मैं अपनी माता को बुलाना चाहूँ तो उसके लिए वह अपनी माता द्वारा कुछ विशेष प्रन्य कराना चाहतो है । उसकी बहुत इच्छा रही कि वह किसी तरह अपनो आँखों से मेरा माता को देख सके, मेरी माता के प्रति उसके दिल में अपनी माता से भी अकि भाव उत्पन्न हो गया था वह बारम्बार मुझ से पूछा करता कि श्राप क्यों नहीं अपनी माता को देखना चाहते हैं पर इसका कोई समुचित उतर मेरे पास से न सुनकर वह मन में बहुत खिन हुत्रा करता थी। मुझे लगने लगा कि मैंने अपनी माता के बारे में इन लोगों से बातें कहकर अपने हृदय को मर्माहत बना दिया और इसको कोई दवा मुझे मिल नहीं रही हैं ।
वारी गांव का वह चतुर्मास मेरे मन को कई प्रकार से आन्दोलित करने वाला रहा ।
चातुर्मास समाप्त होते ही हम तीनों साधुनों ने वहाँ से विहार कर दिया और फिर मालवे की तरफ जाने की तपस्वीजी की इच्छा हुई। हम पुनः एक बार चम्पालालजी से मिलने के लिए अहमदनगर की तरफ गए । उनसे मिले और तपस्वोजी ने कहा कि बहुत वर्षों से प्राप इधर ही विचरे रहे हैं । सो अब मालवे की तरफ हमारे साथ पधारें । सुनकर चम्पालालजी का कुछ मन हो गया और फिर हम सब वहाँ से विहार करते हुए वाम्बोरी आदि गांवों में ठहरते हुए कोई २-३ महिने बाद मनमाड पहूँचे । मनमाड से हमारी इच्छा धुलिया जाने की हुई पर
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