Book Title: Meri Jivan Prapanch Katha Author(s): Jinvijay Publisher: Sarvoday Sadhnashram ChittorgadhPage 88
________________ स्थानकवासी संप्रदाय का जीवनानुभव ( ७३ ) -. wwwAHAmwww... किया कि वह साध्वी उसी गांव की रहने वालो थी और उसकी माता जो विधवा थी लेकिन अच्छी सम्पन्न थी और उदार मन वाली तथा दान-पुण्य करने की भावना वालीं। उसका मकान अच्छा बड़ा था और उस समय हम लोगों के दर्शनार्थ आने वाले कई जनों का निवास उसके मकान में होता रहता था तथा खान-पान प्रादि की भक्ति भी वह श्राविका अच्छी तरह किया करती थी। उसका वह घर भी, हम लोगों के निवास स्थान के सामने वाले चौड़े बाजार में समीप ही या, इतने में वह श्राविका भी साध्वियों के गोचरी का समय जानकर वहां आगई, उसको उस लधु साध्वी ने उस महिला सन्यासिनी के बारे में ठहरने करने की व्यवस्था का सूचन किया, वह प्रौढ़ श्राविका प्रसन्नता पूर्वक उस सन्यासिनी को अपने घर लेगई और वहाँ पर उसके ठहरने की एक एकांत स्थान में व्यवस्था कर दी । दूसरे दिन जब तपस्वींजी का व्याख्यान हुआ तो उसमें वह मन्यासिनो स्त्रियों के साथ एकांत में आकर बैठ गई और एकाग्र मन से तपस्वी जी का व्याख्यान सुनती रहीं। व्यास्यान के बाद वह उस मकान पर चली गई और कुछ भोजन लेकर फिर १२-१ बजे प्राकर मेरे पास उसी चोंतरे पर आकर बैठ गई वे दोनों साध्विया तथा एक दो वैसी अन्य व्हनें भी वहां आकर बैठ गई । हमारा नित्य का जो थाड़ा सा स्वाध्याय का क्रम था उसको चालू किया पर उस महिला के सन्मुख बोलने में मुझे कुछ हिचकिचाहट होने लगी। क्योंकि उस महिला की पहले दिन वाली सारी बातें सुनकर मेरे मनमें एक विचित्र प्रकार की खलबलाहट होने लगी थी । सारी रात पड़ा पड़ा मैं उस महिला की रहस्यमयी बातों का अस्त-व्यस्त चिंतन करता रहा । उसके जीवन के विषय के कुछ विशेष जानकारी प्राप्त करने का भी मेरे मन में कौतूहल उत्पन्न हुआ । उस महिला की उम्र उस समय प्रायः ३५ वर्ष के आसपास को होगी । मेरी उम्र तो उस समय २० वर्ष से भी कम थो उसके अनुभव, ज्ञान और साधना मद्य जीवन की दृष्टि से मेरे में तो कुछ भी नहीं है ऐसी लघुता मेरे मन में उत्पन्न हुई । मैं थाड़ी बहुत धर्म सम्बन्धी बातेंचीतें कर सकता हूँ और कुछ थोड़े से जैन शास्त्रों का मुझे ज्ञान है इससे मेरे पास आने वाले श्रावक भाई-बहनों की दृष्टि में मैं एक अच्छा पूज्यनीय और वन्दनीय साधु समझा जा रहा हूँ और इससे लोग पाकर झुक कर मुझे वन्दन नमस्कार किया करते हैं । इसलिए शायद उस सन्यासिनी महिला के मन में भी मेरे लिए कुछ विशिष्टता के भाव उत्पन्न हुए हों । उस सन्यासिनी ने मुझ से प्रथम तो जैन साधुओं के विषय में जानकारी करनी चाही और इसलिए वह इस विषय के अनेक प्रश्न मुझ से पूछने लगी मैंने उसको धोरे-धीरे साधु धर्म के प्राचार क्या हैं वे संक्षेप में बतलाए। फिर उसने ये आपके गुरू कौन हैं, कहाँ के रहने वाले हैं, इतने लम्बे उपवास क्यों करते हैं. ये साध्वियां कौन है, कि। तरह इन्होंने यह साधु वेष धारण किया, इनके जीवन का क्या उद्देश्य है ? इत्यादि अनेक प्रश्न जो एक अच्छे विचारक के मन में उत्पन्न होते हैं, वैसे प्रश्न उसने पूछे । मैंने अपनी जितनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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