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चम्पालालजी वहीं ठहर गये । रास्ते में मुन्नालालजी भी दोनों बाप बेटे हमारे साथ हो लिए। हम धुलिया पहुँचे वहाँ पर दो साधु जो सगे भाई थे उनसे हमारा मिलना हुआ। उनका नाम तो अब मुझे याद नहीं आ रहा है परन्तु उनकी वहाँ पर अच्छी प्रतिष्ठा नहीं थी वहां के श्रावकों ने उनके शिथीलाचार के विषय में बहुतसो बातें हमें सुनाई - कहने लगे कि ये महाराज रोज सुबह हलवाई की दुकान से गरम गरम जलेबियाँ किसी भाई के द्वारा मंगवाते रहते हैं ऐसी और भी अनेक बातें उन भाईयों ने हमसे कही । तो मैं कौतूहल के वश उनसे हिरु मिल सा गया था और उन्होंने मुझे कुछ दिल खोलकर अपनी बातें कही। उनके पास काँच के विशिष्ट मणियों को एक दो मालाएं मैंने देखी। साधु लोग तो ऐसी काँच की मणियों की मालाए नहीं रखते हैं। मुझे उनको देखकर कुछ आश्चर्य सा हुआ। कुछ समय बाद हमने सुना कि उन्होंने उस साधु वेष का परित्याग कर दिया और मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में दीक्षित हो गए । हम लोग धुलीया से वापस मनमाड नार वहां पर चम्पालालजी के साथ कुछ दिन रहे । तपस्वीजी की इच्छा अब जल्दीर में जाने की हो रही थी उन्होंने चम्पालालजी से चलने को फिर कहा परन्तु उन्होंने अपनी अनिच्छा प्रकट को तब हम लोग उन्हें वहीं छोड़ कर आगे चले रास्ते में बाघली गांव माया यहाँ के श्रावकों का त्याग्रह होने के कारण महिना भर वहाँ ठहरना हुआ । वाघी में भुसावल के कुछ भाई प्राये और उन्होंने ग्राने वाला चातुर्मास भुसावल में करने का अत्याग्रह किया यद्यपि तपस्वाजी को इच्छा चातुर्मास के पहले मालवे में पहुँच जाने की थी परन्तु भुसावल वालों का अत्याग्रह देखकर वहाँ चातुर्मास करने को सम्मति प्रदर्शित की फिर वहाँ से विहार करते हुए उतराण, पांचोरा, जलगांव आदि स्थानों में ठहरते हुए, चौमाले के नजदीक के दिनों में भुसावल पहुँच गए हमेशा के क्रमानुसार तपस्वीजी ने वहाँ पर ५० दिन को तपस्या की सदन की भाँति वहाँ भी सैंकड़ों भाई बहिन दर्शनार्थ प्राए ।
मेरो जोवन प्रपंच कथा
एक दिन एक युवक भाई अपने हाथ में कुछ एक दो पुस्तकें लेकर मेरे पास आकर बैठा । वह अच्छा शिक्षित सा मालूम दिया। कुछ दो-चार बातें करने पर मैंने यों ही पूछा कि यह पुस्तक तुम्हारे हाथ में काहे की है ? तब उसने कहा कि इस पुस्तक का नाम सत्यार्थ प्रकारा है यह आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्दजी की बनायो हुई है। मैं अमुक नगर में एक कॉलेज में एम० ए० की पढ़ाई कर रहा है वहां कॉलेज के छात्रालय में रहता हूँ । वहाँ कुछ आर्य समाज को मानने वाले एक-दो वैसे हो मेरे मित्र रहते हैं जो हमेशा कुछ समाज विषयक बातों की चर्चा करते रहते हैं। मैं जैन होने के नाते मेरे साथ वे जैन धर्म और समाज के बारे में भी कुछ विचार विनियम करते रहते हैं और स्वामी दयानन्दनी के बताए हुए वैदिक सिद्धान्तों पर खूब प्रास्था रखते हैं । उन्होंने कुछ मजाक करते हुए जैन धर्म के बारे में कहा कि जैनियों के ग्रन्थों में ऐसी
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