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मानकवासो संप्रदाय का जीवनानुभव
(४५)
नीचे बैठकर अन्तिम पानी काम में लेते यानी पी लेते। ऐसा करने पर यदि गर्मी ज्यादा अनुलाव होती तो प्राध-पौन घण्टा उस वृक्ष के नीचे विश्रान्ति लेकर बैठे रहते और पानी का प्रतिम ट पी कर पात्र में बचा हुआ पानी शुद्ध भूमि पर 'परठ' देते । परठने की क्रिया भी खास रह की होती है भूमि की बर बर देख-भाल कर, कोई वनस्पतो उगो हुई न हो, कीड़े-मकोहे मादि सुक्ष्म जीवों का हलन-चलन न हो, ऐसी शुद्ध निर्जीव भूमि में पानी को ढोल देना पड़ता है। ऐसी हो क्रिया लंघु-शंका करने के लिए भो करनी होतो है । वर्षों तक ऐसी चर्या का पालन हमने कम ज्यादा तौर पर किया था। रास्ते में चलते समय किसी के साथ बात न करनी चाहिए ऐसी भी सीख दो गयी थी । चलते-चलते रात्रि का निवास करने के योग्य स्थान नजदीक न हो तो फिर सूर्यास्त देखकर कहीं भी वृक्ष के नाचे या कहीं कोई खेत की भोंपड़ी का पाश्रय लेकर रात्रि व्यतीत करनी होती थी । ऐसे २-४ अनुभव भी उस जीवन में हुए ।
इस तरह जब हम उस सड़क के रास्ते से जा रहे थे तब शाम होगई । उस वक्त रेल्वे की लाईन और चलने को सड़क के बीच में एक जगह जगल में एक वृक्ष देखने में आया । पता भगाने पर मालूम हुआ कि गांव तो २-३ कोस की दूरी पर है इसलिए चलना निषिद्ध था जंगल में उस वृक्ष के नीचे ही पशुओं के बैठने की जगह थी उसको रजोहरण के द्वारा साफ करके उसके ऊपर वस्त्र डालकर रात्रि व्यतीत की। दिन सहज-साज गर्मी जैसे थे, इसलिए रात्रि ज्यादा कष्टदायक नहीं लगी। हमने जिस पेड़ के नीचे रात्रि व्यतीत करने का निश्चय किया, वहीं से १००-२०० कदम दूर रेल्वे मेन को पक्की कुटिया थी । जि में एक रेल्वेमेन रहा करता था वह पाती जाती गाड़ियों को लाल या हरी झण्डी या बत्ती बताने का काम किया करता । दूर से उसने हमको देखा और हमारे पास आकर कहने लगा कि “साधु महाराज ! आपने यहाँ इस सुनसान जंगल में किसलिए पड़े रहना पसन्द किया ? यहां ता कभी कभो रात्रि को चीते जसे जानवर भी आ जाते हैं और पास पास के भेड़ या बकरियाँ आदि को उठा ले जाते हैं।" हमने हमारी स्थिति उसको समझाई उसने कहा महाराज रात को जगते रहना और कोई पशु जैसा दूर से आता दिखाई पड़े तो खुखारा वैगरह करना । मैं भी रात को मेरी कुटिया में जगता रहता हूँ । उस रेल्वे मेन की बात सुनकर हमारे मन में जरूर भय का संचार हुमा । सारी रात सोने की बात ही न थो तपस्वीजा और हम साधु मन में नवकार मन्त्र का जाप करते रहे और बिछौने में सिकूड़ कर मुह पर चद्दर प्रोडकर पड़े रहे । मगर रात्रि में रेल्वे लाईन पर ३-४ दफे गाड़ियां पायी गयी । उनको देखने से मुझे तो रात खूब आनन्द-दायक लगी । जीवन में पहली दफे ही ऐसा कौतुहल जनक दृश्य देखने में आया । उस जमाने में न मोटर थी न ट्रक वगैरह, साईकिल पर भी कोई दिखाई न देता था मात्र बैलगाड़ियां चलती थी।
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