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स्थानकवासी संप्रदाय का जीवनानुभव
(५६)
विहार कर एक गांव में पहुँचे । यों दो-तीन दिन चलने पर हम भुसावल के निकट पहुँचे । रेल्वे के बड़े पुल द्वारा ताप्ती नदी को पार कर हम भुसावल पहुँचे ।
____ सुबह और दोपहर को तपस्वीजी श्रावकों को व्याख्यान सुनाते रहते थे । उन वर्षों में जैन साधुनों का अर्थात् स्थानकवासी साधुओं का उस प्रदेश में विचरण बहुत ही कम होता रहता था । इसलिए साधुओं के तरफ लोगों का भक्तिभाव अच्छा होता था ।
भुसावल में रेल्वे का बहुत बड़ा कारखाना है जहाँ हजारों लोग काम करते हैं हम लोग शौचादि के निमित्त कभी-कभो कारखाने की ओर निकल जाते थे । उस बहुत बड़े कारखाने में मशीनों आदि का बड़ा शोर-शराबा होता रहता था। इसलिए मेरे मन में यह जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि यहां ऐसा शोर-बकोर क्यों सुनाई देता है ?
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मैंने सहज भाव से मेरे पास आकर बैठने वाले कुछ युवकों से पूछा, तब उन्होंने कहा कि इस कारखाने में रेल के बड़े बड़े इंजिन पोर डिब्बे प्रादि तैयार होते रहते हैं और उसके लिए बड़े-बड़े यन्त्र अादि लगे हुए हैं। मेरे मन में इनको देखने को इच्छा हो आई, और मैंने उनसे पूछा कि क्या हम लोग उस कारखाने को देख सकते हैं ? तब उन लड़को ने कहा कि-कारखाने में जाने की इजाजत मिलने पर देख सकते हैं, और हमारे पिताजी आदि का सबध कारखाने के बड़े अफसरों से है, इसलिए वैसो इजाजत मिल जायेगी । मैंने तपस्वीजी से कहा कि मेरी इच्छा इस कारखाने को देखने को हो रही है। तब उन्होंने कहा कि ऐसा कारवाना हमने भी कभी नहीं देखा है, इसलिए अपन सब एक दिन देखने को चलें । फिर उस श्रावक भाई को साथ लकर हम कारखाना देखने गए । पहली ही बार हमने वैसा कारखाना देखा जिसम बड़े भारी यन्त्र और चक्र घूम रहे थे और सैंकड़ों लोग तरह-तरह की मशीनों पर बड़ी फूति और होशियारी से काम कर रहे थे । बड़े बड़े बॉयलर जिनमें मणों कोयला झोंका जारहा था और उनमें स निकलती हुई आग की लपटों की गर्मी से पास गा काम करने वाले पसीनों से तरबतर दिखाई देते थे। कहीं कहीं बड़ो बड़ी लोहे को भट्टियों में से पिघलता हुअा लोहा निकल रहा था । और उससे रेल की पटरियां और पहिये आदि अनेक आकार-प्रकार की चीजें ढाली जा रही थीं। कहीं रेल के इंजिन जोड़े जा रहे थे तो कहीं माल गाड़ी के डिब्बे तैयार किये जाते थे । मकान की गर्मी को ठीक नियमित रखने के लिए जमीन के अन्दर बहुत बड़े बड़े पंखे लगाए गए थे जिनकी हवा से काम करने वालों को यथा योग्य आराम मिला करता था । कारखाना इतना बड़ा था कि जिसको पूरी तरह देखने के लिए तो दो-तीन दिन भी पर्याप्त नहीं
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