Book Title: Meri Jivan Prapanch Katha
Author(s): Jinvijay
Publisher: Sarvoday Sadhnashram Chittorgadh

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Page 59
________________ ( ४४ ) मेरो जोवन प्रपंच कथा ___ मह से बड़वाह जाते समय रास्ते में कालापानी नामक एक छोटा सा रेल्वेस्टेशन है । महू से थोड़ी दूरी पर छोटी पहाड़ियां आने लगी और वह जतार वाला प्रदेश था इसलिए उसमें से जानी वाली सड़क स्थान२ पर टेढ़े मोड़ लेकर नीचे उतरती थी। उसके पास पास रेल्वे लाईन भी उसी तरह उतर रही थी । बीच में एक दो छोटी मोटी पहाड़ियां काटकर उसमें से रेल्वे लाईन निकाली हुई देखी । देखकर मेरे पाश्चर्य का पार न रहा । थोड़ा बहुत जानने में पाया था कि अंग्रेजों की यह एक अद्भुत करामात है । जिन्होंने ऐसे बड़े पहाड़ को नाचे से काट२ कर उसमें से रेल्वे लाईन निकाली थी । हम उस सड़क पर तीन चार घण्टे तक चलते रहे, उस बीच में एक पेंसेजर गाड़ी भी उस रेल्वे लाईन पर जाता देखो और • वह फक-फक करती सुरंग में घुस गई और थोड़ी देर बाद दूसरी ओर बाहर निकल गई । मेरे अबोध और बाल मन में इसे देखकर कई तर्क-वितर्क हाते रहे । हमें जिस स्थान पर पहुँचना था वह लगभग १०-१२ मील जितना दूर था । रास्ते में रहने लायक कोई खास स्थान नहीं था । साधु जीवन को चर्या की कुछ चर्चा हमारे इस प्रकार के साधु जीवन की चर्या के विषय में कुछ थोड़ी सी चर्चा करने चाहता हूँ क्योंकि हम जिस तरह की कुछ कठिन कही जाने वाली ऐसी चयां का पालन करते थे वह चर्या मेरे जीवन में फिर कभी देखने में या अनुभव में नहीं आयी ।। हम साधुजन अपने उपयोगी आवश्यक वस्त्र, पात्र और पोथो पन्ने सब अपने पास ही रखते और अपने शरीर द्वारा जितने उठाये जा सके उतने ही उपकरण रखते थे । किसी भी गृहस्थ के द्वारा अपने उपयोग की एक भी वस्तु उठवाते नहीं थे, अथवा किसी के द्वारा मंगवाते भी नहीं थे । सूर्योदय होने के बाद ही विहार करते थे और सूर्यास्त हो जाने के बाद एक डग भी चलते नहीं थे दोपहर के वक्त विहार करते तो गांव में से लिया हुअा आवश्यक निर्वध्य पानी पात्र में रख लेते थे भर ग्रीष्म में भी इसी चर्या का पालन करते थे । नियम था कि जिस स्थान से माहार या पानी ग्रहण किया हो उस स्थान से ज्यादा से ज्यादा कोई ४ मोल (दो कोस) दूर ले जाने की आज्ञा थी । कितनीक दफह ऐसा अनुभव करना पड़ा कि भर ग्रीष्म के दोपहर को ३-४ बजे तक विहार करते और २ कोस दूर सीमा पूरी हो जातो तो वहां किसी वृक्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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