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स्थानकवासी संप्रदाय का जीवनानुभव
(२.)
प्रकार से न सतावें और न आस पास के छोटे गांवों में ही कोई लूट पाट का काम करें ।
सुनकर सरदार ने कहा-आपकी बात मुझे मंजूर है और आप पर पूरा विश्वास है इसलिये मैं आपके किसी विश्वस्त जनों को जमानत के तौर पर बंदी बनाकर रखना नहीं चाहता।
फिर नगर सेठ सरदार को मुजरा आदि कर उठ कर अपनी पालखो में बैठकर वापिस नगर में चले आये और फिर सब महाजनों को एकत्र कर सरदार के साथ हुई बात चीत से उनको परिचित कराया ।
महाजनों ने कहा-इतना रुपया इकठा करने की तो इस नगर के प्रजाजनों की कोई शक्ति नहीं है ।
सुनकर मन में गंभीर भाव से सोच कर नगर सेठ ने महाजनों से कहा कि-मैं नगर की स्थिति को अच्छी तरह जानता हूँ । पर नगर जनों पर यह महान जो संकट पाया है, इसके लिये मुझे यथाशक्ति अपने नगर की रक्षा के लिये कर्तव्य बजाना मेरा धर्म है । सो मैं सोच विचार कर एक दो दिन में इसका कुछ प्रबन्ध करूगा। फिर सेठ ने अपनी जो वृद्ध विधवा माता थी उसको जाकर एकान्त में यह सब बात सुनाई । माता बड़ी धर्मनिष्ट और दयाशील थी । उसने कहा कि बेटा अभी तो अपो पास जो कुछ है उसको इकठ्ठा कर उस सरदार के पास तुम अपने वचनों के अनुसार पहुँचा दो। मुझे यह तो मालूम नहीं है कि तुम्हारी दूकानों में अभी कितना झपया उपलब्ध है, परन्तु अपने पूर्वजों ने मकान के निचले तहखानों में रुपयों से भरे हुए कुछ चरू गाड़ रखे हैं । उनको निकलवा लो। मुझे विश्वास है कि जितनी रकम देने का तुम वादा कर पाये हो उतनी रकम उनमें से निकल पाएगी ।
सुन कर नगर सेठ ने माताजी को प्रणाम किया और कहा कि जैसी आपकी प्राज्ञा है वैसा ही मैं करूंगा।
वे चरू हवेली के किस तहखाने में, कहाँ गड़े हुए थे इसका पता केवल इस वृद्ध सेटानी हो को था, नगर सेठ को भी इसका कोई पता नहीं था । सेठानी ने जाकर वह तहखाना बतलाया और तद्नुसार सेठ ने उसे खुदवा कर वे गड़े हुए चरू बाहर निकलवाये ।
उन रुपयों को बोरों में भरे गये तो साठ बोरे उनसे भरे । सेठ ने बोरों का वजन करके अंदाज लगाया तो प्रत्येक बोरे में एक लाख जितने रुपये मालूम दिये । सेठ बड़ा हर्षित हुआ और
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