Book Title: Meri Jivan Prapanch Katha
Author(s): Jinvijay
Publisher: Sarvoday Sadhnashram Chittorgadh

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Page 47
________________ ( ३२ ) प्रायः जैन साधु साध्वियों को ऐसे बाल वय वाले किशोर युवक और युवतियों को देख कर उनके मन में अपने चेला-चेली बनाने की लालसा उत्पन्न होती रहती है, ऐसे अनेक अनु भव हमें हुए हैं । उक्त साध्वीजी ने धीरे धीरे अपने स्निग्व प्रेम से उस किशोरी को साध्वी हो जाने की प्रेरणा की । उसकी माता को यह बात ज्ञात हुई तो उसने भी उस बारे में अपनी सहमति दिखाई । माता ने सोचा वेटी बाल विधवा है न सासरे में न पोहर में हो कोई रक्षा करने वाला 1 हो जाती है तो मेरी छाती पर का शाल मिट करती रहूँगी । बेटो जवान होने पर न जाने किस प्रेरणा दो कि तुम इन साध्वोजी की शिष्या बन सारी जिन्दगी अच्छी तरह खान पान मिलता रहेगा यदि यह इस प्रकार इन साध्वीजी की चेली जायगा यों मैं कब तक इसका भरण पोषण रास्ते चढ़ जाय, अतः उसने भी बेटी को जाओ। इससे तेरा जन्म सुधर जायगा और इत्यादि । मेरो जीवन प्रपंच क खेर, उस किशोरी ने उसी गांव में साध्वी जी के पास सामान्य रूप से दीक्षा लेली औौर साध्वी का वेश पहन लिया। कुछ दिन बाद साध्वीजी वहाँ से विहार कर गई और कई गांवों में घूमती फिरता वे उक्त प्रकार से तरस्त्रीजी महाराज के कारण उज्जैन में चातुर्मास के लिये आकर रह गई । गुरूणी साधवीजी अपनी नव दीक्षिता शिष्या की तरफ कुछ विशेष अनुराग दिखाने लगी, जिसकी ईर्ष्या अन्य चैलियों को होने लगी । वह दीक्षिता किशोरी चंचल स्वभाव की थी और कुछ तेज मिजाज वाली भी थी । अन्य साध्वियां जब उसकी तरफ कोई कटाक्ष भरो बातें करती तो वह उनका वैसा ही जवाब देती रहती थी । यों धीरे धीरे उनमें परस्पर वैमनाय बढ़ता गया । गुरूणीजी भी उसको वैसा न करने के लिये कुछ कठोर शब्दों में- उपालंभ भी देने लगी । यों कुछ दिन बीतने के बाद भाद्रपद महिने में सिर के केशों का लुंचन करने का समय आया । जैन साधु साध्वियों के प्राचार में केशों का लुचन करने की सबसे अधिक कष्ट दायक कठिन क्रिया है । हर छह महिने में यह केश लुंचन क्रिया को जाती है । छोटी उम्र के बाल दीक्षितों के लिये भी इस आचार का पालन आवश्यक होता है । इस केश लुंचन के कष्ट से कई बाल दीक्षित साधु वेश छोड़ कर भाग जाते हैं । ऐसा अनेक बार होता रहता है । मैंने भी ऐसे व्यक्तियों को देखा है । मेरा प्रथम केश लोच हुआ तब मुझे भी यह बहुत कष्टदायक अनुभूत हुआ, परन्तु मैंने अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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