Book Title: Meri Jivan Prapanch Katha
Author(s): Jinvijay
Publisher: Sarvoday Sadhnashram Chittorgadh

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Page 52
________________ स्थानकवासी संप्रदाय का जोवनानुभव बाद के वर्षों में तो मैं धीरे धीरे उस कष्ट क्रिया से अभ्यस्त हो गया था और मन में कुछ वैराग्य भाव भी दृढ़ होता गया । इस लिये उस बारे में मुझे अधिक विचार करने की आवश्यकता नहीं श्राई । ( ३७ ) जब मैंने मूर्तिपूजक संवेगी मार्ग का साधुवेश परिधान किया तब भी यह लाक्रिया होती रही । आगे चलकर तो मैं स्वयं अपना केश लुंचन अपने ही हाथों से कर डालता था । पर यह तो आगे की कथा का विषय है । कहने का तात्पर्य यह है कि जैन साधुत्रों के प्रचार में केश लुचन का एक सबसे अधिक कठिन आचार धर्म समझा जाता है और यदि इस ग्राचार धर्म का पालन करने की प्रतिशवता का जोर न होता हो तो आज जितनी सख्या में जैन साबु, साध्वी दिखाई देते हैं उससे कहीं अधिक संख्या में साधु साध्वी बनने को लोग तैयार हो सकते हैं -- क्योंकि सामान्य रूप से जैन साधु के जैसा सुखी जीवन जीने का अन्यत्र दुर्लभ है । महाकालेश्वर के मंदिर का दर्शन उज्जैन में जो महाकालेश्वर का प्रसिद्ध मंदिर है, उसको देखने को एकबार मेरे मन में इच्छा हुई । श्रावण महिने के प्रत्येक सोमवार को महाकालेश्वर के मंदिर से एक बड़ा जुलूस निकलता था और उसमें सरकारी बैन्ड पुलिस पार्टी और घुड़सवार आदि का पूरा लवाजमा होता था । यह जुलूस उज्जैन के मुख्य मुख्य बाजारों में होता हुआ, वापस महाकालेश्वर के मन्दिर में जाकर समाप्त होता था। उज्जैन में उस समय ग्वालियर की सिंधियां - सरकार का राज्य था मराठा राजशाही शिवभक्त होने के कारण ग्वालियर सरकार की ओर से महाकालेश्वर का यह उत्सव बड़े ठाठ से मनाया जाता था । मैंने पहले जब भैरवी - दोक्षा ली थी, तब महाकालेश्वर के दर्शन कई बार किये थे परन्तु उस समय मंदिर आदि को ठोक तरह से देखने का कोई प्रसंग नहीं मिला । मैंने यतिवर गुरु श्री देवीहंसजी से कुछ सुना था कि कल्याण मंदिर स्तोत्र, जिसको गुरुजी ने मुझे कंठस्थ करवाया था, उसके बनाने वाले सिद्धसैन दिवाकर आचार्य थे । उन प्राचार्य ने महाकालेश्वर के मंदिर में बैठकर इस स्तोत्र की रचना को थी और इसके कारण इस मदिर में जैन तीर्थकर पार्श्वनाथ भगवान की मूर्ति प्रकट हुई । इसे जैन लोग प्रावंती पार्श्वनाथ नाम से पूजते रहे हैं । यह आवंती पार्श्वनाथ का जैन मंदिर भी, हमारे लूण मण्डी वाले धर्मस्थानक से नजदीक ही के एक मुहल्ले में था । परन्तु हम लोग कभी उस मंदिर में जाते नहीं थे. क्योंकि हमारे सम्प्रदाय में मूर्ति पूजा पाखण्ड स्वरूप मानी जाती रही है । परन्तु मेरे मन में यह कौतुहल रहा कि महाकालेश्वर मंदिर को जाकर अन्दर से देखें कि वह कैसा बना हुआ है। इस जिज्ञासा के कारण हम एकदिन मुन्नालालजी और मोतीलालजी के साथ महाकालेश्वर के मंदिर को देखने गये । मंदिर की कुछ सीढ़ियाँ चढ़कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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