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प्रत द
किसी अज्ञात लक्ष की खोज में, चलता रहा में सारा जीवन, पा न सका कहीं में उसको खिन्नहीं रहा है मेरा मन,
जाना चाहता हूं अब अन्य लोक में, लेकर उसी माशा को साथ, आशा ममर है-इसलिए मैंने, उसका पकड़ा पक्का हाथ.
अंतनिमग्न होकर जब मैं, सोचता है जीवन का अतीत भमणा मय बैषम्य सुरों का, सुनता हूं कुछ अगम्य संगीत ।
भूला फिरा मैं अजात जंगल में, जीवन सारा किसी दुराशा में मृगतृष्णावव वह आशा निकली, निश्चेष्ट हो सोॐ निराशा में.
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