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(१८)
मेरो जीवन प्रपंच कथा
स्थानक बासी, क्या तेरह पंथी साधुनों में होता होगा। मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के साधुषों में तो उस प्रकार के प्राचार के पालन की कोई कल्पना ही नहीं की जाती ।
____ हमारे पास पहनने के लिये दो चोल पट्ट और प्रौढ़ने के लिये तोन चद्दर होतो थी उससे अधिक वस्त्र नहीं रखते थे । सियाले में चाहे जितनो ठंड पड़ती हो उन तीन चद्दरों के सिवाय अधिक कोई वस्त्र नहीं रखते थे। नोचे बिछाने के लिये चोल पट्ट ही का रात्री में उपयोग किया करते थे। पढ़ने के लिये कुछ लिखित ग्रन्थ साथ में रखते थे, वे इतने ही प्रमाण में रख सकते थे. जिनको एक कपड़े के वेस्टन में बांधकर स्वयं उठाकर ले जा सकते थे। ये पोथियों के दो वेस्टन होते थे जिनको इस प्रकार एक कपड़े के टुकड़े में बांध लिये जाते थे, जो चलते समय गले में डाल लिये जाते थे । इनमें का एक वेस्टन पीठ पर लटकता था । दूसरा वेस्टन आगे छाती पर लटका रहता था। इससे अधिक पुस्तकें कभी पास नहीं रखी जाती थीं। पुस्तक न किसी गृहस्थ के द्वारा मंगवाई जाती थी, न गृहस्थ के द्वारा किसी अन्य साधु के पास भिजवाई जातो थी। हम साधु न कभी किसी को चिट्ठी लिख कर डाक द्वारा कहीं भिजवाते थे। मैंने उस साधु वेश में कभी कोई पोस्ट कार्ड न देखा, न कभी किसी को कहीं लिखा । छपी हुई पुस्तक के पढ़ने का बहुत समय तक कोई मौका ही नहीं मिला । पुराने साधुप्रो के हाथ की लिखी हुई, कुछ थोकड़ों की प्रतियां मेरे देखने में आती तो मैं उसको प्रतिलिपि करने का प्रयत्न करता। मैं कोशिश करने लगा कि जिस तरह की सुन्दर सुवाच्य लिपि में लिखी हुई प्रतिलिपि मेरे सामने है - उसी तरह के अक्षरों में में उसे लिखू। इसके लिये धोरे-धीरे में अपने अक्षरों की प्राकृति को सु-दर बनाने का प्रयत्न करने लगा, परन्तु उस सावु सम्प्रदाय में पेन या पेंसिल रखने का अथवा उसका उपयोग करने का निषेध था । लिखने का साधन एक मात्र महाजन व्यापारी लोग जिस प्रकार की बरू की कलमों का उपयोग करते है, वैसी ही एक दो कल में किसो श्रावक के यहां से मांग लेते और उनके द्वारा कालो स्याहो से लिखने का काम किया जाता। परन्तु वह स्याही कैसी होती थी इसका भी मनोरंजक वर्णन है ।
चीनी मिट्टो की उस जमाने में मिलने वाली छोटी दवात प्राप्त कर उसमें किसी श्रावक की दूकान से स्याही मांग लाते थे । पर वह स्याहो रात को अपने पास वैसे रूप में रख नहीं सकते थे । इसके लिये दिन में उस स्याही का उपयोग कर लेने के बाद रात में जो बच जाती ता उसको वैसी ही चीनी मिट्टी की छोटी सी प्यालो में निकाल देते और उसे हवा में सूखने को रख देते। फिर दूसरे दिन सवेरे जब श्रावक के घर से कहीं शुद्ध निवैध पानी बहोर लाते तो उसके कुछ बिन्दु उस रात में सूखी हुई स्याही में डाल कर उसे घोल कर लिखने योग्य बना लेते ।
मैंने प्रयत्न कर थोड़े ही दिनों में अपने अक्षर अच्छे सुन्दर मरोड़ वाले बना लिये थे और
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