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स्थानकवासी संप्रदाय का जीवनानुभव
(१५),
मुझे. जिज्ञासा हुई. और मैने पूछा कि हमारे उज्जैन वाले संग्रह में कुछ न थ ऐसे कहे जाते हैं जिनको कोई पढ़ नहीं सकता । तब प्रोफेसर ने कहा- ऐसे हजारों ग्रन्थ "विद्वानों ने पढ़ लिये हैं और पढ़ते जाते हैं। प्राचीन लिपि का ज्ञान करने के लिये कुछ ऐसी पुस्तकें भी हैं जिनको पाने से भिन्न-भिन्न प्रकार की प्राचीन लिपियों के पढ़ने का ज्ञान हो जाता है उदाहरण के तौर पर उन्होंने कहा कि अजमेर में एक ऐसे विद्वान हैं जिन्होंने प्राचीन लिपिमाला नामक पुस्तक बनाई है, । उस पुस्तक में एसी सभी प्राचीन लिपियों के पढ़ने की सामग्री संकलित की है बस इतनी बात कह कर वे उठ खड़े हुए । तब मैने उनसे पूछा कि इस मस्जिद में आपने जो नये शिला लेख आदि देखे हैं । उनमें क्या लिखा हुअा है ?
प्रोफेसर ने हँसते हुए कहा काजा भोज के समय के लिखे गये कुछ महत्व के लेख प्रादि इन चिलानों पर खुदे हुए हैं। हमारे लिये इतिहास को दृष्टि से यह बहुत बड़ो नई सामग्रो है। हम लोग अब इसका अच्छी तरह अध्ययन आदि करेंगे और इन पर प्रकाश प्रादि डालेंगे ! यह कह कर वे स्थानक से रवाना हो गये।
उस दिन से मेरे मन में प्राचीन लिपियों का ज्ञान कैसे प्राप्त किया जाय और किस तरह इतिहास की ये महत्व की बातें समझो जाय, इसका ज्ञान प्राप्त करने की अन्तर में एक तीव्र जिज्ञासा ने बीजारोपण कर दिया ।
वह मानो मेरे समग्र भावी जीवन का एक परम लक्ष्य रूप अन्तर में स्थिर होगया। ये लक्ष्य कब और कैसे कार्य रूप में परिणत होने लगा इसका वर्णन जीवनी के आगे के प्रसंगों में यथा स्थान पायेगा ।
जैन साधुओं के आचार विषयक कुछ विचार
धार का वह चातुर्मास समाप्त होने पर हम लोगों ने अन्यत्र विचरने का उपक्रम किया । जिस सम्प्रदाय में मैं था और जिस समय का मैं यह वर्णन कर रहा हूँ, उस समय उक्त सम्प्रदाय के साधु संत चातुर्मास की समाप्ति होते ही उस स्थान से विहार कर देते थे और चतुर्मास के सिवाय, जैन साधु जिसको शेषकाल कहा करते हैं- किसी एक ग्राम में एक महिने से अधिक नहीं ठहरते थे। मैं जबतक उस सम्प्रदाय में रहा, प्रायः तब तक इस नियम का पालन बराबर होता रहा ।
वर्तमान में स्थानकवासी साधुनों के प्राचार में भी बहुत शिथिलता दिखाई देती है। मैंने जिस प्रकार के प्राचार का पालन किया, वैसे आचार का पालन शायद ही वर्तमान समय के -क्या
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