Book Title: Meri Jivan Prapanch Katha
Author(s): Jinvijay
Publisher: Sarvoday Sadhnashram Chittorgadh

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Page 31
________________ (१६) मेरी जोवन प्रपंच का - यों प्रो. भांडारकर जब धार पाये तो नगर में कोई मन्दिर मठ आदि हैं जिनमें कुछ पुराने ग्रन्य देखने को मिले। यों वे धार का पुराना इतिहास अच्छी तरह जानते थे और राजा भोज आदि का इतिहास उन्हे अच्छी तरह ज्ञात था । उस मस्जिद के बारे में भी उनका पूरा ज्ञान था कि कब मुसलमानों ने भोज के बनाये हुए उस महान् सरस्वती मन्दिर को तोड़ फोड़ डाला और उसको कैसे नष्ट भ्रष्ट किया गया । इसका इतिहास तो उन्हें अवगत था । परन्तु उस मन्दिर को प्रत्यक्ष देखने का उन्हें कभी मौका नहीं मिला । पर उक्त प्रकार से जब वे वहाँ मस्जिद देखने आये तब उसमें लगे हुए अनेक टूटे फूटे शिलालेखो को भी पढ़ने का कुछ प्रयत्न किया । हो सका वहाँ तक उन लेखों को छापें आदि भी उन्होंने लिवाली। ये काम पूरा कर लेने पर उन्होंने शहर में कोई ऐसे स्थान हो जिनमें पुराने ग्रन्य वगैरह देखने को मिले। किन्हीं राज कर्मचारो द्वारा उन्हें पता लगा कि धार में जैन लागों का एक पुराना धर्म स्थानक है, उसमें साधु संत हमेशा माते जाते रहते हैं। तो उनको इच्छा हुई कि उस धर्म स्थान में कोई पुराने ग्रन्थ देखने को मिल जाय, ऐसा सोचकर वे हमारे धर्म स्थानक में पाये । जैन साधुओं के प्राचार विचार से वे अच्छी तरह परिचित थे हो । स्थानक में आकर तपस्वी जी महाराज से नमस्कार किया और श्रावकों ने उनके बैठने के लिये कुछ आसन सा रख दिया थाजिस पर वे बैठ गये और पूछने लगे कि-महारान आपके इस धम स्थानक में कोई पुराना लिखा हुआ जैन पुस्तकों प्रादि का संग्रह है क्या ? और आपके पास भी काई पुरानो लिखो हुई पौथा प्रादि है ? तपस्वीजी ने कहा-इस स्थानक में कोई ऐसा ग्रन्थ नहीं है । उज्जैन में हमारा एक पुराना जैन धर्म स्थानक है, उसमें एक बड़ा लकड़ी का बक्सा है, जिसमें ऐसे कई पुराने लिखे हुए शास्त्र हैं । हमें उसके पूरे नामादि का कोई खास परिचय नहीं है । यहाँ तो हमारे अपने नित्य के पठन पाठन योग्य जो कुछ सूत्र आदि हैं, उनमें एक पुरानी लिखी हुई उत्तराध्ययन सूत्र की पोथी अवश्य है, जिसको पाप देखना चाहें तो हम दिखादें । प्रोफेसर ने कहा, हाँ अवश्य दिखाइये । तपसीजी ने अपने पास वाले वेस्टन को खोल कर उसमें से वह उत्तराध्ययन की प्रति डाक्टर के हाथ में रखी । उक्त डाक्टर ने तो ऐसी हजारों जैन प्रतियां देख रखी थी। तुरंत उसका अन्तिम पम्ना उठाया और उसकी अन्तिम पंक्ति पड़ी तो उसमें लिखा हुमा था कि संवत् १५४५ में मंडप महादूर्ग में यह प्रति अमुक यति ने लिखी। यह पढ़कर उन्होंने पोथी वापस लौटाई और कहा- यह पोथी इतने वर्ष पुरानी है और मालवे के मांडवगढ़ में अमुक ने लिखाई और अमुक ने इसकी प्रतिलिपि की । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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