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स्मानकवासी संप्रदाय का जीवनानुभव
( ५ )
गये।
यों मेरे लिये वह सारा दिन खूब व्यस्त सा रहा । गोचरी के समय एक साधु आहार लेने गया । वह हम साधुग्नों के योग्य आवश्यक आहार ले आया और हम सब साधुनों ने एक साथ बैटकर पाहार किया । आहार के लिये जैसा कि साधुनों के पास काष्ठ के बने हुए छोटे बड़े तीन चार पात्र होते हैं, उन्ही में यह अाहार किया जाता है। मेरो दीक्षा निमित श्रावकों ने मेरे लिये तीन चार नये काष्ठ पात्रों का एक सेट साधुओं को भेंट कर दिया था। तपस्वीजी ने उन्हीं पात्रों में मेरे खाने योग्य दो एक रोटी, कुछ सब्जी, दाल जैसी प्रवाही चीजें मेरे पात्र में रखदी । पाहार के समय मुंह पत्ति खोलकर पास में रखदो जाता है । मैने भी पहले दिन दंक्षा ग्रहण करते समय जो मुह पत्ति मुख पर बांधी थी. इस समय खोल कर पाम में रख दी, मनमें बहुत अटपटा सा लग रहा था। छोटे से पात्रों में जो कुछ खाने योग्य रोटो आदि थी उसको मैंने जल्दी जल्दी खाली। बचपन से हो मेरो अादत खाने के समय जल्दी जलदो वा लेने को रहो है । मुझे जल्दी जल्दी ग्रास खाते हुए देखकर तपस्वोजी ने कहा-धोरे धोरे खा !
आहार में श्रावक लोगों ने बहुत प्राग्रह पूर्वक कुछ मिष्ठान्न आदि बहेराये, परन्तु साधु के प्राचार मुताबिक जितना अन्न खाया जा सके उतना हो अन्न ग्रहग करने की विधि है । किंचित् मात्र भी अधिक खाद्य वस्तु नहीं ली जाती, क्योंकि साधु को पात्र में उच्छिष्ठ रखने का निषेध है और किचित् मात्र भो बचे हुए को बाहर फेंकने की मनाई है । कभी कार्य वश ऐसा अन्न पात्र में अधिक या जाय और वह पूरा नहीं खाया जाय तो उसे बाहर जंगल में जाकर मिट्टी अादि के नीचे दबा देना पड़ता है। जैन साधुनों की भ षा में इसे परठ देना कहो हैं। किंचित् मात्र भी किसी प्रकार की खाद्य सामग्री रात के लिये अपने पास रख नहीं सकते। यह सर्व विदित बात है कि जैन साधु न कभी सूर्यास्त के बाद अन्न ले सकता है न पानी ही पो सकता है। रात के लिये जैन साधु को किसी भी प्रकार का असन और पान अर्थात् खाना खाना और जल पीना सर्वथा निषिद्ध है।
... . इसी तरह रात को अपने स्थानक से बाहर जाना भो निषिद्ध है। यों जैन साधुनों का प्राचार--मार्ग एक प्रकार से बहुत कठिन समझा जाता है। मुझे अब इस आवार मार्ग का ज्ञान प्राप्त करना था और तद्नुसार उसका पालन करने का भी अभ्यास करना था। दूसरे दिन
आश्विन शुक्ल पूर्णिमा थी तपस्वी जी ने उसी दिन से मुझे कुछ पढ़ाने का मुहूर्त किया । जैसा कि उस सम्प्रदाय के साधुओं की पढ़ाई की परिपाटी है-तदनुसार मुझे तपस्वीज़ो ने सर्व प्रथम
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