Book Title: Meri Jivan Prapanch Katha
Author(s): Jinvijay
Publisher: Sarvoday Sadhnashram Chittorgadh

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Page 25
________________ मेरो जीवन प्रपंच कथा . . . महाजन थे-कुटुम्ब के रूप में प्रसिद्ध था और वे लेन देन प्रादि का बड़ा व्यवसाय करते थे। शहर में सबसे बड़े लखपति प्रासामी समझे जाते थे । मुखिया श्राविका ने कहा कि तपसी जी महाराज आप अपने नये चेले के साथ हमारा घर पावन करने पधारें। : एक दिन तपसी जी मुझे साथ लेकर उसके घर गये । मेरे हाथ में झोली थी. और उसमें दो तीन काष्ठ पात्र थे। श्राविका ने बादाम, पिस्ते, द्राक्षा, छुहारे प्रादि मेवों के भरे हुए थाल में से थोड़े थोड़े दाने मेरे पात्र में बेहराये फिर वह अपनी कुछ समृद्धि दिखाने की दृष्टि से ऊपर वाले कमरे में हमको लेगई. उस कमरे में जगह जगह सोना चांदी आदि के जेवर अलग अलग रों के रूप में रखे हुए थे। कोई पचासों की संस्था में वे ढेर थे। मैं तो आश्चर्य चकित होकर उनके सामने मुग्ध भाव से देखता रहा । मेरी समझ में नहीं आया कि यह क्या तमाशा है । तपसी जी भी उसी तरह कुछ आश्चर्य भाव से देखते रहे. फिर उन्होंने धीरे से पूछा सेठानी जी यह सब क्या है । इन कीमती जेवरों को इस तरह क्यों खुले रख छोड़े हैं। कोई संदूक बक्से आदि नहीं है - जिनमें यह रखे रहें । तब सेठानी ने कहा कि महाराज सा. ये सब जेवर हमारे अलग अलग प्रासामियों के हैं जिनको हम उनकी आवश्यकतानुसार रुपये ब्याज से देते रहते हैं और जव उनका काम हो जाता है तब वे पाकर मय ब्याज के हमारे रुपये दे जाते हैं। उन रुपयों की एवज में वे लोग पास के सोना चांदी आदि के जो जेवर होते हैं हमारे पास रख जाते हैं । हम उनको एक पत्र बनाकर लिख देते हैं कि इतने वजन के इतने जेवर अाज तुमने हमारे यहां रखे हैं और हमने इसकी एवज में तुमको मांगे हुए इतने रुपये दिये हैं । जब रुपये वापस कर दोगे तब ये रकमें तुम लौटा लेना। इस तरह पचासों आसामियों के ये जेवर आदि हैं बक्सों में हम इसको कहां और कैसे रखें, इसलिये इनको ऊपर वाले कमरे में रख छोड़े हैं आदि । देख सुन कर हम वहां से अपने स्थानक में चले आये, धार के उस श्रावक कुटुम्ब के घर में जो यह बात मैंने देखी वह मेरे मन में सदा के लिये अंकित हो गई। क्यों कि सन् १८५७ में हुए अंग्रेजों के विरुद्ध वाले बल्वे ने जिसके ठिकाणे का सर्वनाश हो गया था उस राजपूत घराने के बिल्कुल एक दरिद कुतुम्ब में जन्मा हुआ और जीवन के १५ वर्ष जैसे बाल्यकाल में जिस तरह व्यतीत हुए -उनमें ऐसे कभी किसी धनिक कुदुम्ब के घर की देखने की कोई कल्पना ही नहीं हो सकती थी। - धार के विषय में और वहां के परमार वंशीय राजा भोज प्रादि को कुछ कहानियाँ मैंने अपनी भाषा तथा यतियों के सहवास में रहते हुए सुन रखी थी, पर उसका कोई विशेष ज्ञान मुझे नहीं था। धार जब हम गये तब मन में कुछ तर्क हुआ था कि यह वही धारा नगरी है जिसकी कुछ कहानियां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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