Book Title: Meri Jivan Prapanch Katha Author(s): Jinvijay Publisher: Sarvoday Sadhnashram ChittorgadhPage 24
________________ स्थानकवासी संबवाय का जीवनानुभव पौर उनमें दो चार पर अम्छे मालदार समझे जाले थे। ये सब श्रावक तपस्वी जी के सम्प्रदाय के अनुरागो थे। इसलिये लपस्वी जी मुझ जैसे एक नव दीक्षित बालक साधु को साथ लेकर धार पहुंचे तो श्रावकों ने उनकी बड़ी प्राव भगत को। नियमानुसार हम लोग स्थानक में ठहर गमे । . स्थानक एक अच्छा सा पुराना मकान था और उसमें एक तरफ तोन बार कमरे भी पर की मंजील पर बने हुए थे। स्थानक की रचना देखकर मेरा मन कुछ प्रसन्न हुआ। हर साधु लोग रोज सुबह शौच के लिये गांव के बाहर कहीं दूर निर्जन प्रदेश में चले जाते थे । पासपास की छोटो छोटी पहाड़ियों के इर्द गिर्द दो तोन अच्छे बड़े तालाब बने हुए थे। उनकी पाल पर होकर शौचादि के लिये जाना पाना मुझे बड़ा अच्छा लगता था। एक तरफ एक छोटी की पहाड़ी पर चामुंडा देवी का मन्दिर था जहाँ देवी के उपासक सैकड़ों लोग नियमित प्रावे जाते रहते थे। वायद कोई एक महिना तक हम धार में रुके । तपस्वो जी हमेशा सुबह घण्टा प्राधा घण्टा भाख्यान दिया करते थे। जिसको सुनने के लिये गांव के विशिष्ठ भाई बहिन अ या करते थे। प्रम व्याख्यान के समय मैंने धार ही में सर्व प्रथम एक नई प्रथा देखी । व्याख्यान के अन्त में कुछ भाई बहिन स्तवन या सज्झाय रूप एक दो गीत गाया करते थे । एक दिन भाई गाते थे थे. दूसरे दिन बहिनें गाती थी। ये भाई बहिन वहा के धनवान जन कुटुम्बों के थे । स्त्रियों में खास पळ का व्यवहार नहीं देखा यह कुटुम्ब तपस्वी जी के गुरू रामरतन नी महाराज का संकित हो भक्त कुटुम्न था । श्री रामरतनजो महाराज ने धार में कई चातुर्मास किये थे । बाद में वे उज्जैन में जाकर स्थिर वास करके रहने लगे । शायद तपस्वी जी भो बहुत वर्षों बाद धार प्राये थे । इसलिये इन श्रावकों का उन पर विशेष अनुराग था। मैं उस सम्प्रदाय में एक नव पीक्षिप्त साधु था । मेरो छ'टो ही उम्र थो । कुछ पढ़ते करने में रुचि वाला था । इसलिये उस कुटुम्ब के कुछ संस्कारी युवक और बहिनें मसर मेरे पास आकर बैठा करते थे । यद्यपि सेसको इस बात का कोई प्राभास नहीं मिला कि मैं दीक्षित होने के पहले किम अवस्था में कहां रह चुका है। मुझे तो लोग एक ब्राह्मग का एक अनाथ सा लड़का समझा करते थे, परन्तु मैंने जैन दीक्षा लेली और मैं आगे चल कर एक अच्छा नामी साधु बन मग-इस कल्पना से वे कुछ प्रसन्न रहते थे। प्राहार के लिये हमेशा तपस्वी जी के बड़े शिष्य अनलदासजी और मुन्नालालज़ी जाना करते थे। एक दिन उस पनिक कुटुम्ब की मुखिया अविका जिसके । तोच पुत्र, पत्रवधुएँ तथा पुत्रियां आदि का अच्छा बड़ा परिवार या और वह कुटुम्ब धार में सबसे अधिक सम्पन्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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