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किंचित प्रस्ताविक
(७)
रक्षा कर्म के अनुरूप होना चाहिये । यदि पुलिस के कपड़े पहनने वाला मनुष्य शाक सब्जी बेचने का काम करता दिखाई दे तो उसे देख कर लोगों के दिल में कैसे भाव उत्पन्न हों ? इसी तरह साधु वेष धारण किये हुए मनुष्य का व्यवहार भी उसके वेषानुरूप न हो तो वह लोगो को मायावी अथवा भ्रम में डालने वाला समझा जायेगा।
जीवन की संगतता का सम्बन्ध वेष से नहीं है पर प्राचार से है। आचार जिसका संगत है, वह मनुष्य प्रामाणिक समझा जाता है, चाहे उसका वेष कैसा ही हो । परन्तु जिसने वेष ही को अपने जीवन का मुख्य आधार मान लिया है उसको तो अपने वेष की बाह्य संगतता का अवश्य ख्याल रखना चाहिये । मुह पर मुहपत्ति बांध कर और हाय में प्लास्टिक के मावरण से अच्छादित अोघा रखते हुए युरोप अमरीका के विलासी हाटलों में जाकर ठहरना, मुझे तो यह उस वेष को बो विडम्बना जैसो बात लगती है । ऐसे व्यवहार में न माचार की ही प्रगति मालूम देती है और न विवार को हो प्रगति का प्राभास होता है ।
मैंने स्थानक वासी साधु वेष का परित्याग इसलिए foया कि मेरे विचार उस वेष के । माचार के अनुरूप संगत नही रह रहे थे।
इसके बाद मैंने अपनी विशिष्ट विद्य-अध्ययन की आकांक्षा को तृप्त करने के लिए मूर्तिपूजक सम्प्रदाय का नूतन वेष परिधान किया तथा उस सम्प्रदाय की प्रयानुसार पूर्वावस्या का नाम बदल कर 'जिनविजय ऐसा नूतन नाम भी धारण किया। उसी नाम से मैं अाज तक पहचाना जा रहा हूँ । इस प्रकार मैंने अपने नूतन वेष और नूतन नाम के साथ जीवन के दूसरे चरण में प्रवेश किया और कोई बारह वर्ष तक उस वेष में रहा । इन वर्षों में मैंने यथा योग उक्त वेष और सम्प्रदाय के अनुसार भाव-पूर्वक प्राचार धम का पालन करता रहा । मैं कई स्थानों में घूमा, फिरा और अपना विद्याभ्यास बढ़ाता रहा। कुछ शक्ति का विकास होने पर कई प्रकार की धार्मिक, सामाजिक, शैक्षगिक एवं साहित्यिक आदि प्रवृत्तियों में भी प्रवृत्त रहा । इन सबका वर्णन तो जब उस जावन का परिचय देने का प्रसंग आयेगा, तब उसका पालेखन होगा । यहाँ तो मैं केवल इस मेरे परिर्वतन शील जीवन के वैसे ही एक पुन: वेष त्याग करने के प्रसंग का सूचना मात्र ही करना चाहता हूँ। उक्त प्रकार से मूर्तिपूजक साधु वेष में रहते हुए मुझे अनेक प्रकार के नये विचार प्राने लगे । स्थानकवासी साधु जीवन में विचारों का क्षेत्र बहुत सिमित
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