Book Title: Meri Jivan Prapanch Katha
Author(s): Jinvijay
Publisher: Sarvoday Sadhnashram Chittorgadh

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Page 8
________________ कचित प्रस्ताविक ( ५ ) ३ फुट चौड़ा खद्दर के मौटे से कपड़े का टुकड़ा काम में लेता था । प.ने के लिए केवल हाथ की लिखी हुई पोथियां थी। छपी हुई कोई पुस्तक पास नहीं रखी थी। कभी किसी को अपने हाथ से पोस्टकार्ड या पत्र नहीं लिखा । पाती प्रायः धोवन वाला लिया जाता था कभी उसके न मिलने पर गरम पानी लिया जाता था । अहार के अाधामिक प्रादि जो अनेक दोष हैं उनको टालकर ही वह ग्रहण किया जाता था । चातुर्मास के दिनों के सिवाय सदैव जमीन ही सोना होता था । सूर्यास्त से लेकर सूर्योदय तक अपने स्थान से रात्रि को बाहर निकलना नहीं होता था । विहार में भी सूर्यास्त के हो जाने पर जहां कहीं योग्य स्थान मिल जाता वहां ही रात्रि व्यतीत करनी होती थी । विहार में चाहे जितनी लम्बो सफर करनी पड़तो तो भी २(दो)कोस से अधिक दूर पाहार पानी नहीं ले जाते थे। अपने वस्त्र पात्र आदि सभी उपकरण स्वय ही उठाकर चलते थे । रास्ते में चलते हुए किसी से बात चीत करनी नहीं होती थी । चलते हुए अगर भूल से किसी हरी वनस्पती पर पैर पड़ जाता तो उसके प्रायश्चित स्वरूप एक एक उपवास का दण्ड होता था। प्रति छः मास मस्तक के केशों का लोच करना अनिवार्य होता था। चातुर्मास के सिवा किसी भो स्थान में एक मास से अधिक रहना नहीं होता था। दैनिक चर्या के खयाल से सदैव पाहार पानी से निपटना, शौचादि के लिए गाव बाहर हो आना और भकी समय में कुछ नया सी वना और सीखे हुए का पुनरावता करना यही मुख्य कार्य रहता था। मैं अपने हाथ से विधि पूर्वक बनाई गई स्याही से कुछ सूत्र पाठ तथा थोकड़ों प्रादि की लिखाई करता रहता था । बाद के वर्षों में मराठी भाषा का अध्ययन करना शुरू किया था । हिन्दी मेरी मातृभाषा नहीं थी तथापि मारवे में रहने के कारण टूटी-फूटी हि दो जानता था। उससे अधिक मेरा कोई खास भाषा ज्ञान नहीं था । न मैंने कभी कोई अखबार या पत्र पत्रिकाएँ पढ़ी । साधुओं के सहवास में समुदाय । सम्बन्धित कोई बात-व ते हा जाया करती । इससे अधिक चिंतन का कोई खास क्षेत्र नहीं था । जैन आगम तया थोकड़े जैसे प्रकरणों का स्वाध्याय करते हुए उनमें उलिखित क्षेत्रादि का विवार हुना करता । स्वर्ग नरक आदि परलोक की बातों का भी कुछ ऊहापोह हुअा करता । जीव-ग्रजात्र आदि पदार्थो का थोड़ा-थोड़ा ज्ञान प्राप्त होता रहता था। इनमें से कुछ बातों के विशेष ज्ञान को जिज्ञासा मुझ में उत्पन्न हुआ करती, परन्तु उसका समाधान प्राप्त करने का उस समय में कोई साधन न न करने का उस समय में कोई साधन नहीं था। इस प्रकार की मेरे उस साधु जीवन की चर्या का क्षेत्र बहुत सीमित था। मैं जितने दिन तक उस वेष में रहा, उस चर्या का यथा योग्य पालन करता रहा परन्तु मैं अपनी विद्या पढ़ने की तीव्र अभिरूचि के कारण मुझे उस परिचर्या का परित्याग करना पड़ा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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