Book Title: Manorama Kaha
Author(s): Vardhmansuri, Rupendrakumar Pagariya
Publisher: L D Indology Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 226
________________ सम्मत्तलभो णाम बीओ अवसरो तत्थ य विज्जुसेहरकहा १९९ खणंतरेण वयंस वलियग्गीवं सिणिद्धवंगदिट्ठी-दोरेण । पुणो पुणो मे हिययं आकड्ढंतीव अंतरिया कइवयवणेहिं । तओ पयट्टा सरीरे अंगभंगा, वियंभिया दीहुण्हा नीसास उस्सासा । गओ मुद्दारयणमिसेण तमेव-लयाहरयं । जत्थ सा दिट्ठा तविरहविहुराणि अंगाणि संवाहेउमचयंतो नुवण्णो सुद्धधरणीतले । किं बहुणा। संपयं पि भट्टट्ठियचणगो व्व न सयणीए वि रइं लभामि । एत्यंतरे समागओ सुंदरो । इसि हसिऊण जंपियमणेण--"अहो सच्चा संजाया मे केवलिया।" मेहरहेण भणियं-"भो न एस कालो केलीए विसमदसा समावण्णो पियवयंसो चितेसु किंचि उवायं जेण समीहियं होइ । सुंदरेण भणियं-पाहुणगा तुब्भे । चिट्ठह इह निच्चिता । मह चेव एसा चिता । जब एयं पओयणं न साहेमि तो हुयवहं पविसामि।" विज्जुसेहरेण भणियं--"अहो भे भणिइनिउणत्तणं--" परिणामसुहाई सुपेसलाई जणहि[य]य निव्वुई कराई। विरला जाणंति जणा पत्थावे जंपियव्वाइं ।।२९९।। गओ सुंदरो समासासिओ विज्जुसेहरो। जओ-- दव्वावहारजणियं पियजणविरहुब्भवं दुरहियासं । अइ गरुयं पिहु दुक्खं आसाबंधो सहावेइ।। ३००।। तओ आरब्भ पारद्धा पाणभोयणाईया सरीरठिइविज्जुसेहरेण । भवंति परोप्परं संलावा सुंदर- जयमंगलाण। एवं च वच्चंतेसु दिणेसु अण्णम्मि दिवसे वोलीणो रयणिपढमपहरे मियंक-कर-नियर-करंबिए जीवलोए निग्गओ रयणसेहरमंदिराओ बद्धावणयतूरसहो । संकियहियएण पुच्छिओ विज्जुसेहरेण मेहरहो। तेण भणियं--"अहं पि न सम्म वियाणामि ।" एत्थंतरे विवण्णवयणो अहोमहलोयणो समागओ संदरो । पुच्छिओ मेहरहेण- “वयंस! विच्छायवयणो विय लक्खीयसि ?" तेण भणियं-“भाउय ! जीविए वि णे संसओ। चिट्ठउ ताव विच्छायवयणया।" जओ-दिणावसाणे रविकरा इव अत्थमिया मे मणोरहा जीवियासा य ।" मेहरहेण भणियं----"कहं ?" तेण भणियं-"कण्णकडुयंपि पुच्छंतस्स तुह कहिज्जइ। वद्धावणयतूर-रव-सवण-संकिय-माणसो गओ हं रायमंदिर-दुवारं। बहुजण-संवाह-दुस्संचारत्तणओ पविसिउमचयंतो ठिओ तत्थेव खणमेगं । दिट्ठा य नीहरंती ससोगा जयमंगला रायमंदिराओ । सा वि में दठूण बाहजल-भरिय-लोयणा मन्नब्भर-भरियमाणसा खलंतक्खरं जंपिउमारद्धा-“भो सुंदर ! पेच्छह हयविहिणो विलसियं । संघडण-विहडणुज्जुओ एस हयासो । निष्फलो जाओ सव्वो वि मे पयासो। जओ-- अण्णह परिचितिज्जइ सहरिसकंडुज्जुएण हियए ण। परिणमइ अण्णहच्चिय कज्जारंभो विहिवसेण ।।३०१।। तओ मए भणियं--"कज्ज भणउ भोई । किं बहुणा निरत्थयविलावेण ?" तीए भणियं-"जइ एवं तो सुणसु । अत्थेत्थ उत्तरसेणिसंठिय-सयल-विज्जाहर-नियर-नमणिज्जो सुविभत्त-तिय-चउक्क-चच्चर-उज्जाणारामरमणीयविसालसाल-सक्किदण-पुरवर-सरिच्छं चंपासंदर-पमह-पहाण-बहनयर-सामिओ, कमल-दलविसाललोयणो पडिपुण्णपुण्णिमा चंदो व्व आणंदयरो जणलोयणाणं, सूरो व्व अखंडियपयावो, दप्पिटुवइरि-वारण-विक्कमो, अक्कंतानामंत-सामंतमंडलो सूरसेणो नाम विज्जाहराहिवो । नेमित्तिय-वयण-संचोइएण नियसुयसूरतेय-निमित्तं पेसिया नियपुरिसा कणयमंजरीए वरणत्थं । दिण्णा अणुग्गहं मण्णमाणेण रणसेहरराइणा। पारद्धो वरणमहसवो। समाहूया संवच्छरिया। निरूवियं लग्गं । इओ दिवसाओ दसमदिवसे दसमीए सोमेण पाणिग्गहणं भविस्सइ । अओ एस वद्धावणयं तूर-निग्घोसो। एयं सुणिऊण मुच्छानिमीलियच्छी पडिओ पल्लंकाओ धरणीए विज्जसेहरो । सित्तो सिरि-खंड-जलेण । पविजिओ तालविटेण । संबाहियाणि मेहरहेण सव्वंगाणि । खणंतरेण लद्धचेयणो विलविउमारद्धो-- दसणमेत्तेण वि वड्ढिऊण नेहं हयास रे दिव्व ! अन्नत्थ तं मच्छि जोडितो किण्ण लज्जिहसि ।।३०२।। नयणाण पडउ वज्जं अहवा वज्जाउ समहियं कि पि । अमुणियजणे वि दि8 अणुबंधं जाणि कुव्वंति ।३०३। Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402