Book Title: Manorama Kaha
Author(s): Vardhmansuri, Rupendrakumar Pagariya
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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तइय अवसरे दिसिपरिमाणवए रयणसेहरगंगदत्तकहा
२७९
निज्झायंती भणिया मयणियाए-“सामिणि! किण्ण समाणिया तुम ममेगेण ? किं वा खंडिया परियण-मज्झाओ केणइ तुह आणा ? जेणेवमुव्विग्गा विय लक्खीयसि ? " तीए भणियं मयणियाए-“मह सरीरे अईव दाहो न नज्जइ को वि वाही।" तीए भणियं-"आयारेहिं चेव लक्खिओ मए एस तह वाही।" कण्णयाए भणियं-"केरिसो ते आयारो?" तीए भणियं-'सुणसु । सकडक्खपेहणं बालचुंबणं कण्णनासकंडयणं । छण्णंगदसणं पलवणं च अवगहणं च बाले ॥३१९।। सिंगारकहा-कहणं सदुक्ख वयणाणि अरइसंतावो। पायंगुठेण महीविलेहणं सुग्णहुंकारा ।।३२०।। भसणविघट्टणाणि य कुवियासि (णि ? ) सगव्वियाणि य । एयाणि मयणाउरनारीणं आयारा एरिसा हुंति ।।
___ कणयसुंदरीए भणियं-“अइपंडिए एवं ताव समयण-पुरिसाण पुण केरिसा आयारा ?" तीए भणियं-- कोणच्छि-रोमहरिसो बहुसो सेओ खलंतिया वाणी । नीसासा जुवइ-कहा वियंभणं पुरिसआयारो ॥३२२।।
तीए भणियं-"हला! अलं परिहासेण ? जइ सच्चं चेव महदुक्खेण दुक्खिया, विण्णाय सरीरकारणं निबंधणाय, ता चितेसू तप्पडियारं।" "जं सामिणी समाइसई" त्ति भणिऊण गया गंगदत्तसमीवं मयणिया। साहिओ सव्वो वि कणयसंदरीए वइयरो। गंगदत्तण भणियं-“का एसा? कस्स सुया ? कहिं वा निवसइ?" तीए भणियं-“कलहहिंस?] दीव-कणयनिवासिणो कलहंस-सेट्ठिणो कणयसुंदरी नाम दुहिया तुमं दळूण मयणसरसल्लियंगी तम्मयमिव तिहुयणं पि मण्णइ । 'तुमं मोत्तुं न अण्णो मे करेइ पाणिग्गहणं' एवं कय-निच्छया चिट्ठइ । एवं नाऊण तुमं पि जमुचियं तं करेसु ।" तेण भणियं-“मज्झ वि तं मोत्तं जइ परं जलणजाला सरीरे लग्गइ।" सुणिय तयभिप्पाया जावज्जवि नागच्छइ मयणिया तावेवं विलविउमारद्धा कणयसुंदरी-- देवायत्ते कज्जे अमुणिय-हिययम्मि वल्लहे लोए । निम्मज्जाय अलज्जिर हा हियय ! किमाउली भवसि ? ।। सइ सण-संजायाणुराय खिज्जत.हियय हे हलुयं । हवसु हयास ! न नज्जइ जं अज्जवि कज्ज-परिणामो ।। दीवंतरम्मि वासो अड्डोरयणायरो अइ दुल्लंघो। अम्मा-पिईण वसगो हवइ हु कुलबालिया-वग्गो ॥३२५।। जइ कहवि विहिवसेणं पयाणयं कुणइ सिग्घमवि । ता संदेहो पिय-दसणे वि. कत्तो [उ ] समागमो ।
एवं विलवंतीए समागया मयणिया जावज्जवि न कहेइ गंगदत्त-वुत्तंतं ताव पारद्धा गमण-सामग्गी। समारूढो सपरियणो पुव्वं जाणवत्तं । गंतुं पयर्ट्स सट्ठाणाभिमुहं । परिमिय-वासरेहिं पत्तं कलहाहंस]दीवे । संगोवियाणि भंडाणि । विसज्जिया कम्मयरा । दिट्ठा सदुक्खा जणणीए कणयसुंदरी। पुच्छिया मयणिया--"हला ! किण्ण दिट्ठा गोरवेण वच्छा कणयसुंदरी मामगेण तत्थ जेणेवं दुक्खिया दीसइ ?" मयणियाए भणियं-"गोरविया माउलएण । सवणते होऊण साहिओ जहट्ठिओ वइयरो।
तओ सविसेसं सदुक्खा जाया जणणी। समासासिया तीए कणयसंदरी--"वच्छे ! न विसाओ कायव्वो। मा कयाइ अणुकूल-विहि-वसेण इहेवागच्छेज्ज सो ते पिययमो। गुरुयाणुरायलंधिया पुरिसा तं नत्थि जं न कुणंति । जओ रामदेवेण सीया-निमित्तं सेउं बंधिऊण उत्तिण्णो सायरो।" एवं संठविऊण कणयसंदरी सकम्मवावडा जाया जणणी। गयाणि कइवयदिणाणि।
__इओ [य] रयणसेहर-गंगदत्तेहि पसत्तेहिं पसत्थवासरे[ हिं ] नेमित्तियवयणेण पूइऊण जलनिहिं निव्वत्तियासेसमंगलेहिं उज्झिय-सियवडाणि उक्खित्तनंगराणि जहा-ठाणठिय-निजामयाणि मुक्काणि जाणवत्ताणि । अणुकूल-पवणः पणोल्लियाणि कइवयदिणेहिं पत्ताणि गोकण्णदीवे । तत्थ पुण तया चेव वेरज्जं (?) पुच्छिओ रयणसेहरेण धीवराहिवो--"केत्तियं हवइ भरुयच्छाओ गोकण्णदीवो?" तेण भणियं--"दस जोयणसयाणि।" तओ भणिओ रयणसेहरेण गंगदत्तो--"वयंस ! एत्तो परं गच्छंताण दिसा-परिमाणस्स विराहणा भवइ। एत्थ संठियाण न अग्घंति भंडाणि । ता कि 'कायव्वं ?" तओ कण[य संदरी-सिणेह-लंघिओ कलहं[ स दीव-गमणं पइ सम्मसुयमाणसो सख्यं चिंतिउमारद्धो गंगदत्तो--
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