Book Title: Manorama Kaha
Author(s): Vardhmansuri, Rupendrakumar Pagariya
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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फलसारनिवकहा
२३१
बीय-दिणे समागया सुजसा। निरूवियं तं ठाणं । न दिळं निहाणं । तओ अच्चंतमुव्विग्गा परिचत्त-सबलकरणिज्जा विमण-दुम्मणा समद्धासिया अरईए। अंगीकया रणरणधे । पडिवण्णा सुन्नयाए । कत्थ वि रईमलभमाणी मलयवरंतराले गमणागमणं कुणंती दिट्ठा साहुणि-संघाडएण । भणिया य-"भद्दे ! उविग्गा विय लक्खीयसि ?" तीए मणियं-"भयवइओ ! जाणह, केण वि मह मलए निहाणयं गहियं ।” साहुणीहिं भणियं-“भद्दे ! अम्हे नेरिसाणि वयणाणि सवणेहिं वि सुणामो किं पुण कहेमो। जओ
नक्खत्तं सुमिणं जोगं निमित्तं मंत-भेसजं । गिहिणो तं न आइक्खे भूयाहिगरणं पयं ।।४७३।। __ अम्हेणं देवाणुप्पिए ! सुरासुर-तर-विसरे विणिज्जयमोहतिमिर-विद्धंसण-दिवायरं, राग-दोस-विसम-विसहर
ल-कल्लाण-परंपरा-कारणं केवलि-पण्णत्तं धम्मत्थियाण धम्म कहेमो। जइ भे पओयणं तो सुनुस् ।" सीए भणियं-"कहेह।” कहिओ संखेवेण । सुजसाए भणियं-'कहिं तुम्हाण आसमो ?" साहुणीहि भणियं-"जिणगुत्तसेटिजाण-सालाए बालचंदनामिया पवत्तिणी अम्ह गुरुणी परिवसइ ।' एवं भणिऊण गयाओ साहुणीओ । सा वि नियधर गंतूण ताव ठिया जावोगाढा चरिम-पोरुसी । तओ गया पवत्तिणि-समीवे सुजसा । दिट्ठा पढमवए वट्टमाणी, निरूवमरूव-समद्धासिया, विवज्जिया सयल-वियारेहिं, समलंकिया नाण-दसणसिरीहिं, दुवालसबिह-तव-विसेस-सोसिय-सरीरा, निरुवम-चरणायाराचरणचंगिमा-रेहिरा, पसंत-दसणा-उवसम-सिरि व्ब पडिवण्णविग्गहा, वच्छाहिवस्स धूया, कुमारभावपडिवण्णसामण्णा, बालचंदमुत्ति व्व सयलजण-नयणाणंद-कारिणी, बालचंदाभिहाणा पवत्तिणी । तं दद्रुण पणट्ठी विय सजसाए सोओ, आणंदियं चित्तं, उल्लसियं जीव-वीरियं, वियंभिओ धम्मववसाओ । चितियाय पवता-"अहो! रूवं, अहो ! विसय-विरागो, अहो ! निरहंकारया, अहो ! धम्माणुरायया, अहो! कयत्थया भयवईए । अहं पि धण्णा जीए मए अच्चंत-सोम-दसणा, सपिडिया वि व सयल-गण-समिद्धी, विग्गहवई विव संजमसिरी, दीविया विव पावंधियारपणातणी, एसा भयवई दिट्ठ'त्ति पवड्ढमाणसुहज्झवसाण-संगमयाए सविणयं गंतुण वंदिया । धम्मलाह-पुरस्सरं संभासिया गणिणीए । निसण्णा समुचियासणे। सुया खणमेतं धम्मदेसणा। पुणो सायरं वंदिऊण जंपियं सुजसाए-"भयवइ ! काऊण अणुग्गहं तं किंपि धम्मोवदेसं वियरसु जेणं नेवं-विहाण दुक्खाण भायणं भवामि । जाओ य मे ईसिदुक्ख-विमोक्खो तुह देसणेण ।" पवत्तिणीए भणियं-"भद्दे ! दुक्खतरुबीय-संगया संसार-समावण्णा सव्वे वि पाणिणो अणुसमयमभिभविज्जति जम्मजरा-रोग-सोगेहि, समोत्थरिजंति मोह-तिमिर-पसारण, पीडिज्जति विसयासाए, कयत्थिज्जति इंदिय-तुरंगमेहि, डसिज्जंति कोह-भयंगमेणं, अव,भंति माण-पव्वएणं, विणस्संति माया-विसवेलिसंगमेण, पलाविज्जति लोह-महासायरल, दुमिज्जंति इटु-वियोगाणिसंपओगाइएहिं, कवलिजंति असुभकाल-परिणईएहिं उत्तसंति मच्चणो । परमत्थयो न केइ सुहिया मोत्तूण संसार-पडिवक्ख-समायरण-परायणे साहु-साथए । जओ-ते भयवंतो मुणिवरा संसार-महावाहिगहिया, पाडिज्जमाणा अम्माइमहावेयणाए निव्वेयसमावप्णया, गवेसिऊण एगंतकुसल-वेज्जं भगवंतं वीयरायं तद्वएसमुट्ठियं वा गुरूं, निवेइऊण अप्पाणयं, तस्स वयणेण, पडिवण्णा सव्व-दुक्ख-विमोक्खणी संजम-किरियं, वाहिज्जवाणा महामोहवाहिणी वि परीसहोवसग्ग-वियणाए, बिमच्चमाणा महामोहवाहिणा, पवढमाणा पसमरामधिईए अतरेष सुसाहुणी पारंपरएण सुसावया कज्जं साहिति । जओ पणटुं च तेसिं मोहतिमिरं, आविब्भूयं सम्मण्णाणं, नियतो असग्गहो, परिणयं संतोसामयं, अवगया असक्किरिया, छिण्णप्पाया भववल्ली, थिरीभूयं झाणवररयणं, आसण्णं परम-वसुहं । ता एवं परमत्थ-चिंताए थोवा एत्थ सुहिया, बहवे पुण दुक्खिय'त्ति लोयववहारेणं । पुणो जे धण-कणन-दुपयवउप्पयाइरिद्धिमंता सुहिया ते परमत्थओ दुहिया चेव । जओ भणियंकहं तं भण्णइ सोक्खं सुचिरेण वि जस्स दुक्खमल्लियइ । जं च मरणावसाण भवसंसाराणुबंधिव्व ।।४७४॥ संसारियसोक्खाई तत्तपरिणाण बाहिरा जीवा । सुहबुद्ध ए गिण्हंति न उण भद्दे विबेगिल्ला ॥४७५११ ता भद्दे ! कुणसु तुम जिणधम्मे समुज्जम पयत्तेण । धम्मविहिणा ण जओ दुहाइं सुलहाइं संसार ।।४७६॥
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