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. १३-३० वें प्रकरण को साधारण घटना को फजूल ही शास्त्रकारों ने देवों का संघर्ष बना दिया है। मैंने उस संघर्ष के । रूप को जन मन का चित्र बना कर उसकी अविश्वसनीय चमत्का. रिकता हटादी है। इससे म. महावीर की महत्ता अधिक ही प्रगट
१४-३१, ३२, ३३, वे प्रकरण में गोशाल सम्बन्धी घटनाएँ शास्त्रोक्त है । पर उसमें आई हुई अलोकिकता हटाकर उसका स्थान मनोवैज्ञानिकता को दिया है। और घटनाओं के अनुकूल विचार प्रगट किये हैं।
१५-३१ से ३७ तक के प्रकरण भी शास्त्रोक्त है। परन्तु दिव्यज्ञान को मनोविज्ञान और सूक्ष्म निरीक्षण बताया है । जैनशास्त्रों में चक्रवर्ती की आवश्यकता क्यों मानी गई इसका काफी अच्छा कारण पेश किया गया है (प्रकरण ३४ ) विवेचन का तरीका तथा युक्तियाँ मेरी है।
१६-म. महावीर सरीखे शान्त वीतराग व्याक्त को जितने कष्ट सहना पड़े वे बहुत आश्चर्यजनक हैं । शास्त्रकार तो कहते हैं कि पूर्व जन्म के पाप के उदय से ऐसा हुआ । परन्तु म. महावीर के किसी भी शिष्य को केवलज्ञान पैदा होने के पहिले इतने कष्ट नहीं झुठाने पड़े जितने कि म. महावीर को केवलज्ञान के पहिलं और पीछे भी उठाना पड़े । इसलिये पूर्व जन्मका सब से आधिक पाप म. महावीर के पास इकट्ठा था यह अत्तर न तो म. महावीर की महत्ता के अनुरूप है न सन्तोषजनक । इस पुस्तक में इस प्रश्न का अच्छा उत्तर है कि श्रमण ब्राह्मण संस्कृति के विरोध स्वरूप श्रमण तीर्थकर महावीर को ये सब कष्ट उठाले पड़े। क्रांति के प्रवर्तक का जीवन ऐसा संकटापन्न, अपमानों से भरा हुआ होता ही है । ३८ वें प्रकरण में यह बात स्पष्ट हुई है। ४० वे प्रकरण में