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महाबन्ध
जिसका भाग्य अनुकूल होता है, उसके समुद्र के उस पार गयी हुई वस्तु भी हाथ में आ जाती है और जिसका भाग्य प्रतिकूल होता है, उसके हाथ में आयी हुई भी वस्तु नष्ट हो जाती है । 'नाभव्यं भवतीह कर्मवशतो भावस्य नाशः कुतः ।'
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लोक में जो होनेवाला नहीं है, वह नहीं ही होता और जो होनेवाला होता है, वह होकर ही रहता है । यह सब विधिविधान कर्म के आधीन है।
कथा-लेखकों और पुराणकारों की स्थिति इससे भिन्न नहीं है। ऐसा करते हुए उन्होंने कर्मवाद के आध्यात्मिक पहलू को भुलाकर मात्र पिछली कई शताब्दियों से चली आ रही सामाजिक व्यवस्था के नियमों को ही सदा अपने सामने रक्खा है । और इसलिए उन्होंने ईश्वर के समान कर्म का अस्त्र के रूप में उपयोग किया है।
यहाँ हमें इन विचारों के कारणों की छानबीन कर लेना उपयुक्त प्रतीत होता है। यह तो हम पहले ही लिख आये हैं कि परलोकवादी जितने दर्शन हैं, उन सबने कर्म के अस्तित्व को स्वीकार किया है; किन्तु इन सबका दार्शनिक दृष्टिकोण अलग-अलग होने से कर्म की व्याख्या भी उन्होंने अपने-अपने दृष्टिकोण के अनुरूप ही की है । प्रकृत में उपयोगी होने से यहाँ हम इस सम्बन्ध में नैयायिक दर्शन के दृष्टिकोण को उपस्थित करेंगे।
नैयायिक दर्शन कार्यमात्र के प्रति कर्म को कारण मानता है। वह कर्म को जीवनिष्ठ मानता है। उसका कहना है कि चेतनगत जितनी विषमताएँ हैं, उनका कारण कर्म तो है ही; साथ ही वह अचेतनगत सब प्रकार की विषमताओं का और उनके न्यूनाधिक संयोगों का भी जनक है। उसके मत से जगत् में द्व्यणुक आदि जितने भी कार्य होते हैं, वे किसी-न-किसी के उपभोग के योग्य होने से उनका कर्ता कर्म ही है।
इस दर्शन में तीन प्रकार के कारण माने गये हैं-समवायी कारण, असमवायी कारण और निमित्त कारण। जिस द्रव्य में कार्य की सृष्टि होती है, वह द्रव्य उस कार्य के प्रति समवायी कारण है। संयोग असमवायी कारण है । और अन्य सहकारी सामग्री निमित्त कारण है। तथा काल, दिशा, ईश्वर और कर्म ये कार्यमात्र के प्रति निमित्त कारण हैं। इनकी सहायता के बिना कोई कार्य नहीं होता ।
ईश्वर और कर्म कार्यमात्र के प्रति साधारण कारण क्यों है? इस प्रश्न का उत्तर नैयायिक दर्शन इन शब्दों में देता है कि लोक में जितने कार्य होते हैं, वे सब चेतनाधिष्ठित ही होते हैं, इसलिए ईश्वर सबका साधारण कारण है।
इस पर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि जब सबका कर्ता ईश्वर है, तब फिर उसने सब प्राणधारियों को एक-सा क्यों नहीं बनाया? वह सबको एक-से सुख, एक-से भोग और एक-सी बुद्धि दे सकता था । स्वर्ग या मोक्ष का अधिकारी भी सबको एक-सा बना सकता था । दुःखी, दरिद्र और निकृष्ट योनिवाले प्राणियों की उसे रचना ही नहीं करनी थी। उसने ऐसा क्यों नहीं किया? जगत् में तो विषमता ही विषमता दिखाई देती है। इसका अनुभव सभी को होता है। क्या जीवधारी और क्या जड़ जितने भी पदार्थ हैं उन सबकी आकृति, स्वभाव और जाति जुदी जुदी है। एक का मेल दूसरे से नहीं खाता। मनुष्य को ही लीजिए। एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य में बड़ा अन्तर है। एक सुखी है तो दूसरा दुःखी। एक के पास सम्पत्ति का विपुल भण्डार है, तो दूसरा दाने-दाने को भटकता फिरता है। एक सातिशय बुद्धिवाला है, तो दूसरा निरामूर्ख । मत्स्यन्याय का सर्वत्र बोलवाला है। बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाना चाहती है। यह भेद यहीं तक सीमित नहीं है । धर्म और धर्मायतनों में भी यह भेद दिखाई देता है। यदि ईश्वर ने सबको बनाया है और वह मन्दिरों में बैठा है, तो उस तक सबको क्यों नहीं जाने दिया जाता। क्या उन दलालों का जो अन्य को मन्दिर में जाने से रोकते हैं, उसी ने निर्माण किया है? ऐसा क्यों है? जब ईश्वर ने ही इस जगत् को बनाया है और वह करुणामय तथा सर्वशक्तिमान है, तब फिर उसने जगत् की ऐसी विषम रचना क्यों की? यह प्रश्न है जिसका उत्तर नैयायिक दर्शन कर्मवाद को स्वीकार करके देता है। वह जगत् की इस
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