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महाबन्ध
निद्रावरण कर्मों के नोकर्म द्रव्यकर्म हैं। इष्ट अन्नपानादि साता का, अनिष्ट अन्न-पानादि असाता का, आयतन सम्यक्त्व का अनायतन मिथ्यात्व का विडौल पुत्र हास्य का, सुपुत्र रति का, इष्टवियोग अनिष्टसंयोग अरति का और मृत पुत्रादि शोक का नोकर्म द्रव्यकर्म है।'
इस कथन का मथितार्थ यह है कि कर्म के उदय से जीव के विविध प्रकार के अज्ञान, अदर्शन, सुख, दुःख, मिध्यात्व, क्रोध, मान, माया और लोभ आदि परिणाम होते हैं अवश्य, पर इन भावों के निमित्तभूत कर्म के उदय में प्रायः वस्त्र आदि बाह्य पदार्थों की सहायता से ही वे परिणाम होते हैं । यतः ये कर्म के उदय में सहकार करते हैं, इसलिए इनकी नोकर्म संज्ञा है।
इसी भाव को व्यक्त करते हुए 'कषायप्राभृत' के रचयिता गुणधर आचार्य कहते हैं
'खेत्तमभवकालपोग्गलट्ठिदिविगोदयखयो दु ॥'
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विविध प्रकार के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव ये अपने-अपने योग्य कर्म के उदय में सहकार करते हैं और इससे कर्म का उदय होकर जीव इष्ट-अनिष्ट फल का भोक्ता होता है। उदाहरणार्थ- कोई मनुष्य क्षुधा से अत्यन्त व्याकुल हो रहा है। ऐसी अवस्था में वहाँ एक दूसरा मनुष्य आता है और उसकी क्षुधाजन्य पीड़ा को देखकर उसे सुन्दर सुस्वादु भोजन कराता है। इससे उसकी क्षुधाजन्य वेदना दूर होने पर वह परम सुख का अनुभव करता है । यहाँ परम सुख के अनुभव कराने में साता का उदय कारण है। और साता के उदय में दूसरे मनुष्य द्वारा दिया गया सुन्दर सुस्वादु भोजन कारण है। यह द्रव्य नोकर्म का उदाहरण है। इसी प्रकार क्षेत्र आदि पदार्थ कर्म के शुभाशुभ फल के प्रदान करने में नोकर्म होते हैं।
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किन्तु जिस प्रकार विवक्षित कर्म का विवक्षित भाव के साथ अन्वयव्यतिरेक सम्बन्ध है, उस प्रकार नोकर्म द्रव्यकर्म के साथ इन भावों का अन्वयव्यतिरेक सम्बन्ध नहीं है। उदाहरणार्थ- जीव का अज्ञान भाव ज्ञानावरण कर्म के उदय से ही होता है; अन्य प्रकार से नहीं । यह नहीं हो सकता कि ज्ञानावरण का उदय रहा आवे, पर अज्ञान भाव न भी हो, या यह भी नहीं हो सकता कि ज्ञानावरण का नाश हो जाने पर भी अज्ञान भाव बना रहे। जब होंगे ये परस्पर सापेक्ष ही होंगे जिसके ज्ञानावरण का उदय होता है, उसके अज्ञान भाव अवश्य ही होता है। इसी प्रकार जिसके अज्ञानभाव होता है, उसके ज्ञानावरण का उदय अवश्य ही होता है। इन दोनों की समव्याप्ति है। परन्तु इस प्रकार नोकर्म के साथ जीव के अज्ञान आदि भावों की समव्याप्ति नहीं है जो बस्त्र आदि अज्ञान के कारण माने जाते हैं, उनके रहने पर भी किसी के अज्ञान होता है और किसी के नहीं भी होता इसी अभिप्राय को ध्यान में रखकर बाह्य पदार्थों को नोकर्म संज्ञा दी है। कर्म वैसी योग्यता का सूचक है, पर बाह्य सामग्री का वैसी योग्यता के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । कभी वैसी योग्यता के सद्भाव में भी बाह्य सामग्री नहीं मिलती और कभी उसके अभाव में भी बाह्य सामग्री का संयोग देखा जाता है किन्तु कर्म के सम्बन्ध में यह बात नहीं है उसका सम्बन्ध तभी तक आत्मा से रहता है, जब तक उसमें तदनुकूल योग्यता उपलब्ध होती है। इन दोनों तत्त्वों को कर्म और नोकर्म संज्ञा देने का यही कारण है ।
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इतने विवेचन से हम यह जानने में समर्थ होते हैं कि कर्म का कार्य क्या है तथापि इसे और अधिक विशदरूप से समझने के लिए सर्वप्रथम उसके वर्गीकारण पर दृष्टिपात कर लेना आवश्यक है। यह तो हम पहले ही बतला आये हैं कि मुख्य कर्म आठ हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । इनमें से प्रारम्भ के तीन और अन्तराय ये चार घातिकर्म हैं और शेष अघातिकर्म हैं । प्रकारान्तर से ये आठों कर्म जीवविपाकी, पुद्गलविपाकी, भवविपाकी और क्षेत्रविपाकी इन चार भागों में बटे हुए हैं । जीवविपाकी कर्म वे हैं, जिनका विपाक जीव में होता है। जिनके विपाकस्वरूप शरीर, वचन और मन की प्राप्ति होती है, वे पुद्गलविपाकी कर्म हैं । भव के निमित्त से जिनका फल मिलता है, वे भवविपाकी कर्म कहे जाते हैं और क्षेत्र विशेष में जो अपना कार्य करते हैं, वे क्षेत्रविपाकी कर्म है । भवविपाकी और क्षेत्रविपाकी कर्म जीवविपाकी कर्मों के ही अवान्तर भेद हैं; केवल कार्यविशेष का ज्ञान कराने के लिए इनका
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