Book Title: Kranti Ke Agradut
Author(s): Kanak Nandi Upadhyay
Publisher: Veena P Jain

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Page 15
________________ [ xiv ] नमो नमः सत्वहितं कराय, वीराय भव्यांबुजभास्कराय । अनन्तलोकाय सरचिताय, देवाधिदेवाय नमो जिनाय । (7) समस्त प्राणियों के हित करने वाले भव्य जीवों के हृदय कमल को सूर्य के समान प्रफुल्लित करने वाले अनन्त आकाश द्रव्य को देखने वाले देवों के द्वारा पूजित सामान्य रूप से जिनेन्द्र देव के लिए नमस्कार हो उसमें भी इस युग के विशेष देवों के भी अधिदेव आराध्य वर्धमान स्वाभी के लिये बारम्बार नमस्कार हो। नमो जिनायत्रिदशाचिताय, विनष्टदोषाय गुणार्णवाय । विमुक्तमार्ग प्रतिबोधनाय, देवाधिदेवाय नमो जिनाय ॥ (8)॥ तीन दशा-बुढ़ापा, जवानी और बाल्यावस्था जिसकी समान रहती हैं अर्थात् जो सदा जवान ही बने रहते हैं, ऐसे देवताओं के द्वारा अचिंत अर्थात् पूजित जिनेन्द्र देव के लिए नमस्कार हो । जिन्होंने जन्म-जरा आदि 18 दोषों को नष्ट कर दिया है जो मुक्ति मार्ग का प्रतिबोधन करते हैं अर्थात् अन्य प्राणियों को समझाते हैं। जो देवताओं के भी देवता हैं ऐसे जिनेन्द्र देव को नमस्कार हो । देवाधिदेव ! परमेश्वर वीतराग, सर्वज्ञतीर्थंकरसिद्धमहानुभाव। त्रैलोक्य नाथ, जिनपुंगववर्द्धमान, स्वामिन् गतोऽस्मि शरणं चरणद्वयंते ॥ (9) ॥ हे देवों से पूज्य हे परम प्रभु ! हे राग, द्वेष कषाय रहित वीतराग ! हे लोकालोक प्रकाशक सर्वज्ञ देव ! हे धर्मतीर्थ के प्रवर्तक तीर्थंकर ! हे सिद्ध ! तथा हे महान् आशययुक्त ! हे तीन लोकों के स्वामी ! हे समस्त चरमशरीरी जीवों में प्रमुख जिनश्रेष्ठ ! हे महावीर स्वामिन् ! इस युग के अन्तिम तीर्थकर ! आपके दोनों चरणों की शरण को मैं प्राप्त हुआ हूँ। जितमवहर्षद्वेषा, जितमोहपरीषहा, जितकषायाः । जित जन्ममरणरोगा: जितमात्सर्याजयन्तु जिनाः ॥ (10) ॥ जिन्होंने मद हर्षभाव, द्वेष परिणति को जीत लिया है जिन्होंने मोह रूपी महाशत्रु को तथा क्षुधा; तृषादि 22 परीषहों को जीत लिया है। अनन्तानुबन्धी; अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान संज्वलन, क्रोध, मान, माया, लोभ तथा हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा तीनों वेद रूप 25 कषायों को जीत लिया है तथा जिन्होंने मात्सर्य, ईर्ष्या अर्थात् अदेखस के भाव को जीत लिया है ऐसे जिनेन्द्रदेव सदा जयवंत रहें।

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