Book Title: Kranti Ke Agradut
Author(s): Kanak Nandi Upadhyay
Publisher: Veena P Jain

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Page 60
________________ [ 39 ] व्युत्सृष्टान्तर्बहिः संगो नैस्संग्ये कृतसंगरः । वस्त्राभरणमाल्यानि व्यसृजन मोहहानये॥196॥ उन्होंने अन्तरंग और बहिरंग परिग्रह छोड़ दिया है और परिग्रह रहित रहने की प्रतिज्ञा की है, जो संसार की सब वस्तुओं में समता भाव का विचार कर रहे हैं और जो शुभ भावनाओं से रहित हैं ऐसे उन भगवान् वृषभदेव ने यवनिका के भीतर मोह को नष्ट करने के लिये वस्त्र, आभूषण तथा माला वगैरह का त्याग किया। केशलोंचदासीदासगवाश्वादि यत्किचन सचेतनम् । मणि मुक्ता प्रवालादि यच्च द्रव्यमचेतनम् ॥ 198 ॥ तत्सर्वविभुर त्याक्षीनिर्व्यपेक्षं त्रिसाक्षिकम् । निष्परिग्रहता मुख्यामास्थाय व्रतभावनाम् ॥ 19) ॥ जिसमें निष्परिग्रहता की ही मुख्यता है, ऐसी व्रतों की भावना धारण कर, भगवान वृषभदेव ने दासी, दास, गौ, बैल आदि जितना कुछ चेतन परिग्रह था और मणि, मुक्ता, मूंगा आदि जो कुछ अचेतन द्रव्य था उस सबका अपेक्षा रहित होकर अपनी देवों की और सिद्धों की साक्षी पूर्वक परित्याग कर दिया। ततः पूर्व मुखं स्थित्वा कृत सिद्धनमस्कृियः। केशानलुञ्चदाबद्ध पल्यङ्कः पञ्चमुष्टिकम् ॥ 200 ॥ तदनन्तर भगवान पूर्व दिशा की ओर मुंह करके पद्मासन से विराजमान हुए और सिद्ध परमेष्ठी को नमस्कार कर उन्होंने पंचमुष्टियों में केशलोंच किया। नियुच्य बहुमोहान वल्लरीः केश वल्लरीः। जातरूप धरो धीरो जैनी दीक्षामुपाददे ॥ 201॥ धीर, वीर भगवान् वृषभदेव ने मोहनीय कर्म की मुख्य लताओं के समान बहुत-सी केशरूपी लताओं का लोंच कर दिगम्बर रूप के धारक होते हुए जिन दीक्षा धारण की। कृत्सनाद् विरभ्य सावद्याच्छितः सामायिक यमम्। व्रतगुप्ति समित्यादीन् तद्भेदानां ददे विभुः ॥ 202 ॥ भगवान ने समस्त पापारम्भ से विरक्त होकर सामायिक चारित्र धारण किया तथा व्रत गुप्ति, समिति, आदि चारित्र के भेद ग्रहण किए। केशों का क्षीरसागर में विसर्जन केशान् भगवतो मूनि चिरवासात्पवित्रतान् । प्रत्येच्छन्माघवा रत्नपटल्यां प्रीत मानसः ॥ 204 ॥ भगवान के मस्तक पर चिरकाल तक निवास करने से पवित्र हुए केशों को इन्द्र ने प्रसन्नचित होकर रत्नों के पिटारे में रख लिया था। सितांशुकप्रतिच्छन्न पृथौ रत्नसमुद्गके । स्थिता रेजुविभोः केशा यथेन्दोलवमलेशकाः ॥ 205॥

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